Sunday 11 September 2016

अम्ब!

सुबह का वक़्त था, लगभग ६ बज रहे थे, मैं कार्यालय के हॉल में पहुंचा तो इस समय कुछ लोग लगभग ३० या ३५ लोग योग कर रहे  थे| मैं हॉल के बहार की तरफ चले गया| तभी अम्ब ने मुझे बहार खड़े देखा तो इशारा कर साथ में योग करने को बुलाया पर मैंने सर हिला मना कर दिया और बस टहलने भर लगा | कुछ देर बाद माँ तेजी से मुड़कर मेरे पास बाहर आ गई और बस मुझे देखने लगी, मुझे पता था जब वो ऐसे भाव से मुझे देखती थी तो उनके मन में क्या चलता था? शायद उनका मन बरबस मुझे आगोश में लेने को था, लेकिन उनकी भाव भंगिमा बता रही थी की वो अपने को सहज करने में लगी हैं, फिर मैं वहीँ सीढियों में बैठ गया और माँ भी पास ही बैठ गई.

माँ को पता था की नब्बू थोड़ी देर में चले जायेगा, इस चले जाने के एहसास को दिमाग से मिटा देना चाहती थी पर उनका चित्त ही मेरे चले जाने पर लगा था, वो भावुक हो रही थी, भीतर पूरा सैलाब भर गया था, उनका चेहरा पल पल रंग बदल रहा था, विरह की वेदना कभी मुख पर छा जाती तो कभी मुझे निहारने का आनंद मुख मंडल पर रौनक ले आता, यूँ धूप-छाँव भावनाओं की चल रही थी| 

मैं मासूम सा यही कहता था, "अब रो मत देना अम्ब!"
"मैं कहाँ रो रही हूँ, मैं नहीं रो रही हूँ, देखो मैंअब किन्नी सारी मजबूत हो गई हूँ" कहकर संयत होती लेकिन पल भर भी अपनी बात पर टिकी वो नहीं रह पाती थी, खुद के दिए हौसले को भी उसका माँ का ह्रदय तोड़ डालता था|

योग सत्र ख़त्म हुआ तो लता माँ के चरण स्पर्श कर मैं भी जाने को उद्यत हुआ | जैसे जैसे अम्ब को लगता कि बस कुछ ही देर में अब मैं चले जाऊंगा तो उनका सारा व्यक्तित्व मुरझा सा जाता था, उनके मन कई विचार चलते थे, "कहीं ये मेरा नब्बू के प्रति मोह तो नहीं है, इतनी तकलीफ क्यों हो रही है, जैसे मुझसे ही मेरा कुछ अंश, कुछ भाग, मेरा हिस्सा ही अलग हो रहा हो, मुझसे कटा जा रहा हो, कुछ भीतर से टूटन सी महसूस हो रही थी" 

एक तरफ उसके विचारो के साथ द्वन्द और दूसरी तरफ प्रत्यक्ष बिछोह, 
माँ तय नहीं कर पा रही थी की किस्से जूझा जाय, 
अचानक बोली " बैठो गली नो १६ तक पैदल चलेंगे, मुझे वहां तक छोड़ आओ, आज स्कूटी नहीं लाई हूँ"

मैंने भी कुछ सोच के हाँ बोल दिया कि " हाँ चलो! थोडा सैर भी हो जाएगी"

गेट से बाहर निकलते ही स्कूटी की चाबी को हवा में लहराते बाल हंसी हँसते हुए कहने लगी " तू मुझसे इतना झूठ बोलता है, आज एक मैंने भी बोल दिया"  अब चल मेरे साथ

संशय में मुझसे कुछ कहा नहीं गया बस इतना ही कहा "नहीं, ये तो चीटिंग है" मैं बाहर से खुद को रोक रहा था, और भीतर से खींचा जा रहा था उसकी तरफ, स्कूटी की तरफ बढे जा रहा था. 
एक अनमने मन से मैं मना करता और फिर साथ माँ के जाने को तैयार सा भी रहता | 
इन सब हरकतों से माँ ने समझ लिया था कि अब तो नब्बू को ले ही जाउंगी |

फिर क्या था, मैं माँ के साथ पीछे स्कूटी में बैठ गया, और इस तरह उसके साथ सफ़र का साथी बन गया, उसके नेतृत्व में चल पड़ा मैं |

सम्भलते सम्भलते स्कूटी को चलाते माँ, मुझे अपने घर के पास ले गई| ......मन मे विचार कि "क्या बोल दूँ अम्ब को, अब चले जाऊं यहाँ से?" नहीं..कैसे कहूँ, इसी उधेड़-बन में माँ ने कहा चलो! 

स्कूटी पार्क हो चुकी थी, मैं अम्ब के पीछे सीढियों पर चढ़ने लगा, उतने में चौकीदार की आवाज आई..
" चाबी....."
अम्ब:- सिद्ध बाहर गया है (आश्चर्य से!) झटपट सीढ़ी से नीचे उतरते हुए 
मैं भी माँ के पीछे पीछे नीचे उतरने लगा, तभी माँ पलट के बोलती, " अरे! तुम वहीँ रुको, बिलकुल; बच्चे की तरह पीछे आ रहे हो, मींठी-डांट ने मुझे रोक दिया  और मैं तीसरे मंजिल की तरफ जाने लगा की जिस दरवाजे पर ताला लगा होगा वहीँ जाकर रुकुंगा |"
मेरे लिए ये सब अनायास हो रहा था, क्योंकि मैंने कभी नहीं सोचा था की माँ के साथ मैं घर पर जाऊंगा, सिद्ध से मिलूँगा...मेरी कल्पना में भी ये ख्याल कभी नहीं आये थे...

इससे पहले कई बार सार्वजनिक रूप से जब में माँ से मिलता तो उनके पाँव छूता था, और वो ठिठक सी जाती थी, उन्हें लगता था मैं ब्रह्मचारी हूँ, मुझे पाँव नहीं छूने चाहिए, लेकिन अगले ही पल उन्हें लगता था जैसे वो अपने कान्हा को, अपने नब्बू को गले से लगा ले, उसे अपने ही पास रख ले

हर बार मुझसे कहती, मैं तुझे परेशां कर देती हूँ न! क्या करूँ कान्हा मैं तड़प जाती हूँ अपने पुत्र को गले लगाने को, मैं सबसे कह दूंगी की मैं नब्बू की अम्ब हूँ, मैं नब्बू की माँ हूँ. फिर कोई कुछ नहीं सोचेगा....इस तरह हर बार वो अपनी ममता को दबा देती...   

भीतर पहुँचते ही, लग गई मेरी आवभगत में!!......पानी पियो...मैं नाश्ता बना देती हूँ आदि आदि...
किचन में घुस गई माँ......जब से मैं उनके अपार्टमेंट में घुसा था, बस छोटे से बच्चे की तरह बस उनके आगे पीछे ही घूम रहा था, इसलिए किचन में भी उनके साथ चले गया, वो तो बस मुझे कुछ खिलाना चाहती थी....

फिर एक पल रुकी...गहरी साँस ली और मुझे अपने आँचल से लगा लिया, उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था की उसका नब्बू, उसका बेटू  उसके पास था, आज वो मुझे कहीं नहीं जाने देना चाहती थी, मुझे खिलाना चाहती थी, निहारना चाहती थी |

अपने मोल लिए कान्हा को यशोदा के हिस्से का प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सबकुछ देना चाहती थी...
"नब्बू क्या सच में टू मेरे पास है...अनायास यही बोल पड़ती"   
         

Friday 9 September 2016

"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ




"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ
बहनों के आशीष से मन हर्षित हुआ
पूज्य श्री का पावन सानिध्य साथ में
सबकुछ पवित्र अंतर्मन सहित हुआ
"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ!!
बहनों की न कोई "मांग" थी,
बस स्नेह पूरित ये छलांग थी
रोली, चन्दन और रक्षा सूत्र था
तृप्ति में डूबी "गीली" आँख थी
भरी कलाई देखकर, मैं भी पुलकित हुआ
"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ
श्रद्धामय वातावरण आहा! उदात्त था
मेरे मस्तक पर देखो बहनों का हाथ था
बंद आँखों से सौ सौ प्रणाम किये
हाँ! ये "रक्षा" का पावन मूक संवाद था
स्नेह ही स्नेह था, अहंकार तिरोहित हुआ
"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ

बचपन से लेकर आजतक!



बचपन से लेकर आजतक!
मैं क्या क्या न हुआ, मैंने क्या क्या मुकाम न छुआ
मैंने डर को "डराया", मैंने दर्द भी बांटा जो था पराया
बचपन की फुंहारे चूमती हैं मस्तक
बचपन से लेकर आजतक!!
एक भाव में जिया, मैं जलता, बुझता सा दिया
लिए घूमता फिरता रहा, कहता रहा कुछ अनकहा!
जो खुद मैं न समझा अब तलक!
बचपन से लेकर आजतक!!
पता नहीं मैं क्या चाहता था? न जाने मैं क्या नापता था?
अपने कदमो से किस ओर चला! ये भी कौन जाने भला?
राहगीर था जो राह गया था भटक!
बचपन से लेकर आजतक!!
भटकी राह में मिलता है, कोई जब पूण्य खिलता है
उंगली पकड़ पार लगाता है, कोई जब अश्रु धार बहाता है
फिर किस्मत पर नहीं रोता है साधक!
बचपन से लेकर आजतक!!

विचार प्रवाह

चालबाज होने से हमारी सम्पूर्ण कोशिश रहती है कि कैसे दूसरों को पटखनी दें, अर्थात हमारे भीतर द्वेष प्रबल रूप से उफान लेने लगता है। यह प्रक्रिया इतनी गुपचुप तरीके से हमें घेर रही होती है कि इसका पता लगना आसान नहीं होता। हम बिखरने लग जाते हैं, हम कम होने लग जाते हैं और सामान्य सी शांति जो सहज उपलब्ध है वो भी हमसे छिन जाती है। इस चक्र से बाहर निकलने का एक ही मार्ग है वो है सबसे प्रेम व प्रीति पूर्वक व्यव्हार करना, कठिन है साधना पथ पर सूक्ष्म साधना की अवस्था इसकी प्राप्ति सुगम बना देती है। इस एक उपाय में सारे उप-उपाय समाहित हैं। चालबाज नहीं हम प्रेम,प्रीति का आगाज़ बनें।

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क्या कोई कभी पूर्ण सत्य बोलने का साहस कर सकता है? पूर्ण सत्य से मेरा आशय है-सबकुछ जो भी अशुभ किया है और आगे से शुभ ही करेगा इस भावना से उघाड़ा गया सत्य!
पूर्ण सत्य:-अपनी प्रतिष्ठा, मान, सम्मान, उपाधि से विरत होकर वाणी को मुक्तहस्त बोलने देना, खोलने देना वो दबे राज जो खुद से भी अनजाने से रहे हैं अबतक!
कोई ऐसा कर ले,तभी पूर्ण निर्भार हो कर सत्य में प्रतिष्ठित हो सकता है, नहीं तो उसका व्यक्तित्व खंड खंड होकर उसे टुकड़ों टुकड़ों में तोड़ देगा!
में कभी कर पाउँगा ऐसा साहस? कठिन है पर मेरे हृदय की तीव्र अभीप्सा है..
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प्रभु चिंतन तू कर ले बन्दे

प्रभु चिंतन तू कर ले बन्दे
अंत समय आएगा काम
बंकि सब तो व्यर्थ है जग में
एक सार्थक है प्रभु का नाम
प्रभु चिंतन..................
प्रभु-महिमा को जी ले, गा ले
भक्ति-शक्ति पायेगा
कर सफल इस जीवन को तू
मोक्ष परम पद पायेगा
मोक्ष ही है तेरा अंतिम धाम
प्रभु चिंतन तू कर ले बन्दे
अंत समय आएगा काम
अनुपम श्रद्धा, उत्कण्ठ भक्ति
ये दोनों हैं भक्त की शक्ति
कर धारण इनको जीवन में
बिना इनके न मिलती है मुक्ति
इसी जीवन में, तुझको होना है अकाम
प्रभु चिंतन तू कर ले बन्दे
अंत समय आएगा काम
सौंप दे सबकुछ उस एक परम को
सौंप दे अपनी तू पहचान
कर्ता-धर्ता दाता वही है
उसका ही है सब कर्म विधान
सब शास्त्रों का एक पैगाम
प्रभु चिंतन तू कर ले बन्दे
अंत समय आएगा काम
दिव्य कर्म तू करता चला जा
फल को करदे "मदर्पण" तू
परम के चरणों की रज बन जा
कर दे खुद को पूर्ण समर्पण
कृष्ण भी तू ही, तू ही राम
प्रभु चिंतन तू कर ले बन्दे
अंत समय आएगा काम

गुरुवर तुम सहज-सरल हो!




कभी हम शिष्यों के बनते उत्तर
कभी हमें ही सुनते हो गुरु-प्रवर
पास बैठाकर कृपा बरसाते
बरसाते हो आनंद प्रखर!
तुम ध्यान की प्रथम पहल हो
गुरुवर तुम सहज-सरल हो!

बरबस ज्ञान की बदली बनकर
निर्भार बरसते निर्झर-निर्झर
कहीं फिर कोई बीज है उगता
वृक्ष बनकर वह छूता ध्यान-शिखर
खिलती कली सी, उगती कोपल हो
गुरुवर तुम सहज-सरल हो!
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
सत्कर्म, सहजता के तुम प्रवाह हो
ध्यान में स्थित वह शाश्वत ठहराव हो
कलकल-अविरल बहता जीवन
समस्त अशुभ का तुम अभाव हो
तुम शांत गहरे सागर के तल हो
गुरुवर तुम सहज-सरल हो!
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
गुरु-सखा या तात् कहूँ मैं
गुरु-शिष्य पावन संवाद कहूँ मैं
सजल नेत्र और उदार हृदय से
बस यही एक बात कहूँ मैं
आनंद बरसाते बादल हो
गुरुवर तुम सहज-सरल हो!



तू अनंत का राही तू रुकना मत!


तुझे धूप भी रोकेगी, तुझे छाँव भी रोकेगी
कभी कभी मायूसी भी तेरे संग संग हो लेगी
पर तू अछूता रहकर भी ठहरना मत
तू अनंत का राही तू रुकना मत!
तुझे क्रोध भी सतायेगा, तुझे लोभ भी लुभाएगा
राग और द्वेष भी आँख पर अंधी-पट्टी फहराएगा
पर तू काम की अग्नि में दहकना मत
तू अनंत का राही तू रुकना मत!
तुझे अभाव भी नोचेंगे, कुछ लोग ऐसा भी सोचेंगे
तू दर्द में है ये कहकर आंसू भी नहीं पोछेंगे
सजल नेत्रो से भी राह धूमिल करना मत
तू अनंत का राही तू रुकना मत!
तुझे माया भी घेरेगी, अपनी जादुई छटा बिखेरेगी
कभी कोई दबी कुचली कुंठा अपना बदला लेगी
इन सब झंझावातों के बीच फफकना मत
तू अनंत का राही तू रुकना मत!
तू अनंत का
राही तू रुकना मत!

Sunday 14 August 2016

रात के पौने 2 बजे हैं।



रात के पौने 2 बजे हैं।










सब सोये हुए लगते हैं, बस एक झींगुर मेरा साथ दे रहा है।
बताते हुए थकता ही नहीं है कि "वो" मेरा साथ दे रहा है।
अरे हाँ! एक पंखा भी है जो मेरे ऊपर मंडरा रहा है
खतरे की तरह नहीं!!!! ठंडक बनकर छितरा रहा है
रात्रि की आरामदायक "गोदी" है
पर आज ये निंदिया की विरोधी है
आज इसके आगोश में खुले हाथ, बंद नहीं होते
चलो रोज हुआ सोना, आज हम भी नहीं सोते
इतना सुनते ही "कोई कहीं" मुस्काया है
रात के पौने 2 बजे हैं।

कभी जगे थे कुलबुलाहट से
कभी जगे थे घबराहट से
कभी जगे थे निंदिया की "आहट" से
पर आज का जगना तो रोएँ रोएँ की मांग है
शायद "दर्द", के पार जाने की कोशिश, छलांग है।
लिखते लिखते "छोटी" ने डांट लगाई होगी
यही- कि रात के पौने 2 बजे हैं (सो जाओ)

मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।

 काल के कपाल पर सब अंकित हुआ
बुरा,भला, उदासीन सब टंकित हुआ
युग, मन्वन्तर, संवत्सर तक सब
इसके गर्भ में पुष्पित, पल्लवित हुआ।
क्षण,पल, "अहोरात्र" का बीज बोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।
मैं क्रांति, शांति और विश्रांति का आश्रय होऊं
निर्जन वन की मूकता का "नवनीत" बिलोउं
गीता के उपदेश को भी "वक़्त" मुहैया कराकर
रणभूमि में अर्जुन बनकर निज शोक को धोऊं
मैं "पाञ्चजन्य" की गूंज को पिरोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।
नदी किनारे ऋषियों के एकांत का साक्षी
वैदिक वाङ्गमय और वेदांत का साक्षी
उस दिव्य परिवेश की फिंजाओं में घुलकर
वैदिक युग के सर्वोच्च दर्शन का आकांक्षी
अपने में वेद, दर्शन, उपनिषद् संजोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।

नब्बू "एक गुजरा अनुभव(बासी)!

अदम्य साहसी, संकल्प से लबालब
स्वयं में निमग्न, "नब्बू" रहता था तब!
गुलाटी मारता, वह कहीं टिकता था कब?
समझ का पर्याय, आनंद का सबब!
इतने विशेषणों के बाद और क्या कह दूँ
हाँ! कुछ ऐसा ही था नब्बू!
ऊँचे पेड़ों पर चढ़, टीवी के सिग्नल्स पकड़ता
लिये गाय को चराने, जंगल को चल पड़ता
ऊँचे टीले के मस्तक पर टाँगे फैलाये,
खुद से सुलझता, और खुद से झगड़ता
भरी भीड़ में होता खुद से रूबरू
हाँ! कुछ ऐसा ही था नब्बू!
अँधेरी रातों में सफ़र करता था
डर के "डर" को बेअसर करता था
मैंने महसूस की हैं उसकी "बेख़ौफ़ सांसे",
जब अपने पे आता था, ग़दर करता था
भावों को शब्दों से कैसे शक्ल दूँ
हाँ! कुछ ऐसा ही था नब्बू!!

स्वतंत्रता का मूल!

स्वतंत्रता का मूल! फाँसी के फंदो पर झूमते, झूलते कन्धे
आतताइयों की गोली के शिकार "आज़ाद" परिन्दे
दबे, कुचले गए माँ भारती के समर्थन में स्वर
या- दूर भारत की सीमा से पार, वो हुंकार प्रखर
जिसकी प्रतिध्वनि आज रही है फल-फ़ूल
हाँ! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!!
कितने नाम लूँ! कि कहीं बेईमानी न हो
उनके भाव अमर हों! भले ही मेरी वानी न हो
उनका हर वो स्वर, जिसने वंदे मातरम् गाया हो
आकाश में "शब्द" बनकर, पुरे देश में मंडराया हो
बन "शब्द-बाण" फिर जो बन गया घातक शूल
हाँ! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!
स्वतंत्रता समर के कई ओर-छोर रहे होंगे
गुलामी के बादल भी कितने घनघोर रहे होंगे
फिर क्रांति-टोला बनकर सूरज निकला होगा
धधका होगा स्वयं तपकर, तब फिर मौसम उजला होगा
"स्वाधीन-रश्मि" ने कली खिलाई, ख़त्म हुआ अंग्रेजी रूल
हाँ! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!
"खून और आज़ादी" का सम्बन्ध क्या होता है?
" स्वदेशी से स्वालंबी भारत" का सपना कौन संजोता है?
जब "मुट्ठीभर बंदूकें" बोई जाती हैं
"भूख-प्यास" में दिन तो रातें सोई जाती हैं
भूलें जितनी पहले की हैं, अब न करेंगे कोई भूल \
हाँ! हां! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!

  वंदे मातरम्! वंदे मातरम्! वंदे मातरम्!

Sunday 5 June 2016

लो लोकतंत्र हम ला गए|

ये कविता मेरे पिताश्री ने आदरणीय मोदी जी के सपथ ग्रहण समारोह के लिए लिखी हैं कैसी लगी आप पढ़कर जरूर प्रतिक्रिया दीजियेगा....... =सबल लोकतंत्र= लो लोकतंत्र हम ला गए| जन जन को जो भा गए| वह बीच हमारे आ गए| हर हर को मोदी भा गए| लो लोकतंत्र हम ला गए|| राम राज का सूत्र लिए| भेदभाव सब दूर किये| विश्व बंधुता मंत्र लिए| सामनीति का तंत्र लिए| वह बीच हमारे आ गए| लो लोकतंत्र हम ला गए|| अब सुख के दिन भी आयेंगे| सब रोजी-रोटी पाएंगे| नहीं हाथ कभी फैलायेंगे| अब ऐसे अवसर ला गए| लो लोकतंत्र हम ला गए|| शिक्षा सहचरी हमें सिखायें| ज्ञान के पथ पर हमें बढायें प्रेम से रहना भी समझायें| कोई भी हमको तोड़ न पाएं मैकाले ही झुठला गए| लो लोकतंत्र हम ला गए|| तोड़ो -बाटों नहीं चलेगा| हम सब जाने, तुम क्या जानो... ऐसा कहना नहीं चलेगा संसद के स्वामी हम ही हैं ऐसा खेल भी नहीं चलेगा| यह हम तुमको समझा गए| लो लोकतंत्र हम ला गए|| हम सत्ता सुख लें नहीं चलेगा| जन का शोषण नहीं चलेगा| सच्चा कर्म ही ध्येय हमारा| इसी मंत्र से देश चलेगा|| यह संकल्प जतला गए| लो लोकतंत्र हम ला गए|| सारी कपटी चालें छोड़ो सच्चाई से मुहं न मोड़ो जितना लूटो वापस करदो  अच्छाई से नाता जोड़ो || प्रेम से हम सब बता गए लो लोकतंत्र हम ला गए || हम चुनाव करते हैं जब-जब तब-तब धोखा खायें हैं चिकनी चुपड़ी बातों के- बिगड़े लालच ललचाएं हैं | समझ गए इन छः दशकों में सब सवा अरब में समा गए | लो लोकतंत्र हम ला गए ||

Sunday 8 May 2016

माँ सृष्टि रचती है,


माँ सृष्टि रचती है,
अपने खून से, उसे सीचंती है,
मैंने सुना है वो,
एहसास करती है,
सृष्टि को गोद में भरती है,
अपनी ममता की फुहारों से पल-पल बरसती है
माँ सृष्टि रचती है,
अपने खून से,
उसे सीचंती है,
उस छोटी सी सृष्टि पर,
बिछ जाती है चादर बनकर
उसे अपने में समग्रता से लेकर लपेटती है
माँ सृष्टि रचती है,
अपने खून से,
उसे सीचंती है
ममता की सींचन से,
स्नेह की बिछोहन से
निरंतर उसके पालन में,
दिनरात लगी रहती है
माँ सृष्टि रचती है,
अपने खून से,
उसे सीचंती है
सृष्टि की उगती कोपलों पर
उनमें अपना प्रेम-रस भरकर
पशुओं से बचाकर, घेरबाड़ करती है
माँ सृष्टि रचती है,
अपने खून से,
उसे सीचंती है

Friday 29 April 2016

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत रे

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत रे
गा ले उसकी महिमा प्यारे जो तेरा है मीत रे!
समय बे समय साथी तेरा एकरस एकसार है
पा ले उसको खुद में अपने जो तेरा है प्यार रे

कह दे उसको मन की अपनी बात सारी प्यारी-प्यारी
वही है तेरी मंजिल राहें, आशिकी दुनियादारी
कर दे सबकुछ अर्पण उसको जो तेरे है पास रे
मत छुपा कुछ उससे बंधू, वो तेरा है खास रे
अपनी धुन में एक हो जा, छेड़ प्यार का संगीत रे
नहीं तुझसे वो खफा है प्यारे, जो तेरा है मीत रे
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत रे
गा ले उसकी महिमा प्यारे जो तेरा है मीत रे!

भक्ति से तू प्रेम कर ले, बिन प्रेम कुछ भी मांग ना
जो भी चाहे सब मिलेगा, इक छलांग तो लांघ ना
पार तेरे वह मिलेगा, जिसकी तुझे है तलाश रे
जा के उसकी छाँव में बैठ मत हो तू निराश रे
बिछड़ बिछड़ खूब है रोया पर मिलना उसकी रीत रे
डूब जा उस एकरस में जो तेरा है मीत रे
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत रे

गा ले उसकी महिमा प्यारे जो तेरा है मीत रे!

आत्म प्रेरणा होने दे

अंतर्वीणा बजने दे, आत्म प्रेरणा होने दे
तरु अच्छाई का लगने को बीज स्वयं को बोने दे
अंतर्वीणा बजने दे, आत्म प्रेरणा होने दे!

उठ जाग भाग प्रातः-काल हुआ
रवि नील गगन में लाल हुआ
अब तू भी चरण बढ़ा अपने...
देख क्या वसुधा का हाल हुआ
अंतर्द्वंद्व निकलने दे, आलस्य पड़ा है सोने दे
तरु अच्छाई का लगने को बीज स्वयं को बोने दे.!

अब रुक मत, तू भर उड़ान यहाँ से
एक छलांग लगा आसमान से
पथिक अनंत का है तू साथी
कर संकल्प दृढ लग जी जान से
अंतर्छंद निस्सरने दे, शुभ संकल्प संजोने दे
तरु अच्छाई का लगने को बीज स्वयं को बोने दे

शुभ अभ्यासों के पंखों को और गति दे ज्ञान दे
अनुजों पर तू प्यार उड़ेल और बड़ों को सम्मान दे
चल उड़ जा पंछी दूर गगन में , प्रेम मगन में
सुर-लय बेमिसाल अब तान दे
अंतर्नाद उभरने दे, शोर भीतर का खोने दे
तरु अच्छाई का लगने को बीज स्वयं को बोने दे

अंतर्वीणा बजने दे, आत्म प्रेरणा होने दे

तरु अच्छाई का लगने को बीज स्वयं को बोने दे

मैं पागल नहीं मैं जागरूक हूँ

मैं पागल नहीं मैं जागरूक हूँ
इस माती का सच्चा युवक हूँ ,
योगयुक्त महामानव हूँ
मैं महापुरुषों का प्रतिपूरक हूँ

प्राण-फूंक आज़ाद प्रतिमा में, एक जोश “नवीन” जगाना है
योगमय कर समग्र विश्व को, मानवता का पाठ पढ़ाना है
प्रचंड पुरुषार्थ से लबालब,
मैं राष्ट्रभक्ति में भावुक हूँ
मैं पागल नहीं मैं जागरूक हूँ

स्वाभिमान का शंखनाद हूँ
मैं भगतसिंह मैं आज़ाद हूँ
मैं शहीदों का जोश अमर हूँ
मैं राष्ट्रगोष्ठी का पावन संवाद हूँ
मैं अदम्य साहसी, वज्र सा कठोर
पर भीतर से नाजुक हूँ

मैं पागल नहीं मैं जागरूक हूँ

Tuesday 19 January 2016

भवतु में मन: स्वदेशी

भवतु में मन: स्वदेशी
भवतु में तनु: स्वदेशी
यदि प्राणा: गता: त्वपि
शववस्त्रं अपि स्वदेशी
भवतु में मन: स्वदेशी
भवतु में तनु: स्वदेशी !!१!!

यत हस्तेन् अस्ति निर्मित्तम्
स्वीकृतम् निर्धनेभ्य:
पूरित: यस्मिन् स्नेहं
वस्तु तत् स्वदेशी
भवतु में मन: स्वदेशी
भवतु में तनु: स्वदेशी !!२!!

यत् ग्रामे एव निर्मित्तम
ग्रामात् एव अर्जित्तम
सम्यक् स्थापयति ग्रामं
तत् कार्यं अपि स्वदेशी
भवतु में मन: स्वदेशी
भवतु में तनु: स्वदेशी !!३!!

को मानवस्य धर्म:
कष्टानि यत् जानाति
मनावताया: करोति रक्षणं
सा एव वृति: स्वदेशी
भवतु में मन: स्वदेशी
भवतु में तनु: स्वदेशी !!४!!

तनो: वसनं स्वदेशी
विचारा: मनसि स्वदेशी
तदा भवतु ग्रामे-नगरे
राष्ट्रे विस्तृता स्वदेशी
भवतु में मन: स्वदेशी
भवतु में तनु: स्वदेशी!!५!!

पूज्य स्वामी रामदेववर्यस्य स्वदेशीअभियानं समर्पितं एतानि शब्दपुष्पपाणी मया.

जागरणस्य कालः एषः

जागने का वक्त आ गया। स्वामी जी का जो प्रिय क्रांतिकारी गीत रहा है उसका संस्कृत में अनुवाद करने का एक विनम्र प्रयास।
जागरणस्य कालः एषः
एषः कालः एव।
रक्तं अस्ति राष्ट्राय
प्राणाः सन्ति संस्कृताय
जीवनस्य को लाभः
यदि जीवनम् विलासाय
संस्कृतस्य कालः एषः
एषः कालः एव
शृणोतु मृत्वो: पदचापम्
अस्ति जीवनम् अल्पम्
भविष्यति विकास: देशे
"कथम् इति" चिंतयामः
भारतस्य कालः एषः
एषः कालः एव
हतः यो राष्ट्राय गतः
तेन मृत्युः नतः एव
येन संस्कृतिः रक्षिता
राष्ट्रभक्त: स एव
संस्कृत्या: कालः एषः
एषः कालः एव
जागरणस्य कालः एषः
एषः कालः एव