Sunday 14 August 2016

रात के पौने 2 बजे हैं।



रात के पौने 2 बजे हैं।










सब सोये हुए लगते हैं, बस एक झींगुर मेरा साथ दे रहा है।
बताते हुए थकता ही नहीं है कि "वो" मेरा साथ दे रहा है।
अरे हाँ! एक पंखा भी है जो मेरे ऊपर मंडरा रहा है
खतरे की तरह नहीं!!!! ठंडक बनकर छितरा रहा है
रात्रि की आरामदायक "गोदी" है
पर आज ये निंदिया की विरोधी है
आज इसके आगोश में खुले हाथ, बंद नहीं होते
चलो रोज हुआ सोना, आज हम भी नहीं सोते
इतना सुनते ही "कोई कहीं" मुस्काया है
रात के पौने 2 बजे हैं।

कभी जगे थे कुलबुलाहट से
कभी जगे थे घबराहट से
कभी जगे थे निंदिया की "आहट" से
पर आज का जगना तो रोएँ रोएँ की मांग है
शायद "दर्द", के पार जाने की कोशिश, छलांग है।
लिखते लिखते "छोटी" ने डांट लगाई होगी
यही- कि रात के पौने 2 बजे हैं (सो जाओ)

मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।

 काल के कपाल पर सब अंकित हुआ
बुरा,भला, उदासीन सब टंकित हुआ
युग, मन्वन्तर, संवत्सर तक सब
इसके गर्भ में पुष्पित, पल्लवित हुआ।
क्षण,पल, "अहोरात्र" का बीज बोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।
मैं क्रांति, शांति और विश्रांति का आश्रय होऊं
निर्जन वन की मूकता का "नवनीत" बिलोउं
गीता के उपदेश को भी "वक़्त" मुहैया कराकर
रणभूमि में अर्जुन बनकर निज शोक को धोऊं
मैं "पाञ्चजन्य" की गूंज को पिरोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।
नदी किनारे ऋषियों के एकांत का साक्षी
वैदिक वाङ्गमय और वेदांत का साक्षी
उस दिव्य परिवेश की फिंजाओं में घुलकर
वैदिक युग के सर्वोच्च दर्शन का आकांक्षी
अपने में वेद, दर्शन, उपनिषद् संजोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।

नब्बू "एक गुजरा अनुभव(बासी)!

अदम्य साहसी, संकल्प से लबालब
स्वयं में निमग्न, "नब्बू" रहता था तब!
गुलाटी मारता, वह कहीं टिकता था कब?
समझ का पर्याय, आनंद का सबब!
इतने विशेषणों के बाद और क्या कह दूँ
हाँ! कुछ ऐसा ही था नब्बू!
ऊँचे पेड़ों पर चढ़, टीवी के सिग्नल्स पकड़ता
लिये गाय को चराने, जंगल को चल पड़ता
ऊँचे टीले के मस्तक पर टाँगे फैलाये,
खुद से सुलझता, और खुद से झगड़ता
भरी भीड़ में होता खुद से रूबरू
हाँ! कुछ ऐसा ही था नब्बू!
अँधेरी रातों में सफ़र करता था
डर के "डर" को बेअसर करता था
मैंने महसूस की हैं उसकी "बेख़ौफ़ सांसे",
जब अपने पे आता था, ग़दर करता था
भावों को शब्दों से कैसे शक्ल दूँ
हाँ! कुछ ऐसा ही था नब्बू!!

स्वतंत्रता का मूल!

स्वतंत्रता का मूल! फाँसी के फंदो पर झूमते, झूलते कन्धे
आतताइयों की गोली के शिकार "आज़ाद" परिन्दे
दबे, कुचले गए माँ भारती के समर्थन में स्वर
या- दूर भारत की सीमा से पार, वो हुंकार प्रखर
जिसकी प्रतिध्वनि आज रही है फल-फ़ूल
हाँ! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!!
कितने नाम लूँ! कि कहीं बेईमानी न हो
उनके भाव अमर हों! भले ही मेरी वानी न हो
उनका हर वो स्वर, जिसने वंदे मातरम् गाया हो
आकाश में "शब्द" बनकर, पुरे देश में मंडराया हो
बन "शब्द-बाण" फिर जो बन गया घातक शूल
हाँ! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!
स्वतंत्रता समर के कई ओर-छोर रहे होंगे
गुलामी के बादल भी कितने घनघोर रहे होंगे
फिर क्रांति-टोला बनकर सूरज निकला होगा
धधका होगा स्वयं तपकर, तब फिर मौसम उजला होगा
"स्वाधीन-रश्मि" ने कली खिलाई, ख़त्म हुआ अंग्रेजी रूल
हाँ! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!
"खून और आज़ादी" का सम्बन्ध क्या होता है?
" स्वदेशी से स्वालंबी भारत" का सपना कौन संजोता है?
जब "मुट्ठीभर बंदूकें" बोई जाती हैं
"भूख-प्यास" में दिन तो रातें सोई जाती हैं
भूलें जितनी पहले की हैं, अब न करेंगे कोई भूल \
हाँ! हां! यही तो है स्वतंत्रता का मूल!

  वंदे मातरम्! वंदे मातरम्! वंदे मातरम्!