Sunday 11 October 2015

संस्कृतप्रीति: जने-जने

संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम्
मातुः चरणे शिर: नवामि
यात्किम् अपि पार्श्वे सर्वं अर्प्यामि
संस्कृतभाषा ग्रामे-ग्रामे 
“कथं भवेत्” इति चिन्तयामि
संस्कृतभक्ति: गृहे-गृहे
ग्रामे-ग्रामे संस्कृतम्
संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम् ।।१।।
गृहे-गृहे संस्कृतं वदेत्
जीवने संस्कृति आगच्छेत्
सर्वेषाम् कृते माता एषा
जीवनदात्री सा भवेत्
संस्कृतशक्ति: गणे-गणे
मनसि- मनसि संस्कृतम्
संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम् ।।२।।
संस्कृत-भाषा देवभाषा
किमपि न लभते विना तस्या:
जीवने केवलं एकं लक्ष्यम्
“कथं भवेत्” जनभाषा एषा
संस्कृतरीति: आत्मनि आत्मनि
हृदये-हृदये संस्कृतम्
संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम् ।।३।।
एषा संस्कृतरचना अहम् संवादशालायाम् रचित्वान...

आओं जीवन सुलझाते हैं...

आओं जीवन सुलझाते हैं...
जब स्वयं में विचलन हो,
ठहराव कि आस में उभरी तड़पन हो
मन बेलगाम हो, बस भागता हो
एक डर अनजाना कंपन हो
जब खुद को अकेले पाते हैं!
आओं जीवन सुलझाते हैं...
आँखों में.....
जब जीवन की धुंधली तस्वीर हो
धुंधला रास्ता, साफ़ दिल कि पीर हो
शरीर अपनी जर्जरावस्था को लिए
द्रवीभूत हुआ हृदय लिए आँखों में नीर हो
जब अकेले में हम खो जाते हैं
आओं जीवन सुलझाते हैं...
जब....
हृदय में फांस लगती है, गला अवरुद्ध हो जाता है
वो भयानक चीत्कार भी जब, कोई सुन नही पाता है
तुम्हारी अटकी सांसों में लटकता हुआ जीवन
एक क्षणजिंदगी पाने को दयनीय गुहार लगाता हो
जब अपेक्षाओं के ढेर पर, फैसले ढेर हो जाते हैं
तब...................आओं जीवन सुलझाते हैं...
तुम्हें पहली बार लगेगा कि तुम अब समाप्त हुए
जो हादसे नही होने थे इस वक्त, हादसे बेवक्त हुए
मुट्ठी भर आंसुओं कि कीमत तो हर कोई लगा देगा
उन आंसुओं का क्या जो दिल कि कैद में जब्त हुए
जब आँखों में आंसूं पाँव काँप जाते हैं
तब आओ जीवन सुलझाते हैं
समाधान..................
आंसुओं कि तह में जाकर उन्हें टटोलना
दुनिया से की हैं बातें अबतक अब स्वयं से बोलना
कुछ ढक गया हैं मेरा उजियारा, हृदय गुहा में
उन अन्धकार पाशों से खुद को हैं खोलना
जब शून्य में ठहरकर, कुछ देर ठहरना पड़ता है
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं
प्रेम कि भाषा समझना, प्रेमरस को तरस जाना
अहसांसों के मौसम में बन बूँद-बूँद बरस जाना
सूखे-घृणित हृदय प्रदेशों में, जर्जर मानसों में
प्रेमरस से सींचकर तू, भावपुष्पों को महकाना
जब ध्यान कि गहराइयों में, गहरा उतरना पढता है
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं...
सहजता और सजगता जीवन कि पहचान हैं
ह्रदय को कर तू निश्छल तेरा यही तो काम हैं
बिछा दे भावों को तू, डूबा के खुशियों में
हैं जीवन सहर तो मौत तेरी शाम है
पकड़कर हाथ शुभ आचरण का चढ़ना पड़ता है
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं...
मौत में जब तुझे जीवन दिखाई देगा
छोड़ दुखों के साथ को, खुशियों कि बलाई लेगा
तुझे भीतर मिलेगा सुख का सागर और लहरें आनंद कि
तेरा हर कदम "तू आनंदित है" ये गवाही देगा
प्रतिक्षण आनंद में, सुख में झूमना पड़ता हैं
जब....
हृदय में फांस लगती है, गला अवरुद्ध हो जाता है
वो भयानक चीत्कार भी जब, कोई सुन नही पाता है
तुम्हारी अटकी सांसों में लटकता हुआ जीवन
एक क्षणजिंदगी पाने को दयनीय गुहार लगाता हो
जब अपेक्षाओं के ढेर पर, फैसले ढेर हो जाते हैं
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं...