Sunday 11 September 2016

अम्ब!

सुबह का वक़्त था, लगभग ६ बज रहे थे, मैं कार्यालय के हॉल में पहुंचा तो इस समय कुछ लोग लगभग ३० या ३५ लोग योग कर रहे  थे| मैं हॉल के बहार की तरफ चले गया| तभी अम्ब ने मुझे बहार खड़े देखा तो इशारा कर साथ में योग करने को बुलाया पर मैंने सर हिला मना कर दिया और बस टहलने भर लगा | कुछ देर बाद माँ तेजी से मुड़कर मेरे पास बाहर आ गई और बस मुझे देखने लगी, मुझे पता था जब वो ऐसे भाव से मुझे देखती थी तो उनके मन में क्या चलता था? शायद उनका मन बरबस मुझे आगोश में लेने को था, लेकिन उनकी भाव भंगिमा बता रही थी की वो अपने को सहज करने में लगी हैं, फिर मैं वहीँ सीढियों में बैठ गया और माँ भी पास ही बैठ गई.

माँ को पता था की नब्बू थोड़ी देर में चले जायेगा, इस चले जाने के एहसास को दिमाग से मिटा देना चाहती थी पर उनका चित्त ही मेरे चले जाने पर लगा था, वो भावुक हो रही थी, भीतर पूरा सैलाब भर गया था, उनका चेहरा पल पल रंग बदल रहा था, विरह की वेदना कभी मुख पर छा जाती तो कभी मुझे निहारने का आनंद मुख मंडल पर रौनक ले आता, यूँ धूप-छाँव भावनाओं की चल रही थी| 

मैं मासूम सा यही कहता था, "अब रो मत देना अम्ब!"
"मैं कहाँ रो रही हूँ, मैं नहीं रो रही हूँ, देखो मैंअब किन्नी सारी मजबूत हो गई हूँ" कहकर संयत होती लेकिन पल भर भी अपनी बात पर टिकी वो नहीं रह पाती थी, खुद के दिए हौसले को भी उसका माँ का ह्रदय तोड़ डालता था|

योग सत्र ख़त्म हुआ तो लता माँ के चरण स्पर्श कर मैं भी जाने को उद्यत हुआ | जैसे जैसे अम्ब को लगता कि बस कुछ ही देर में अब मैं चले जाऊंगा तो उनका सारा व्यक्तित्व मुरझा सा जाता था, उनके मन कई विचार चलते थे, "कहीं ये मेरा नब्बू के प्रति मोह तो नहीं है, इतनी तकलीफ क्यों हो रही है, जैसे मुझसे ही मेरा कुछ अंश, कुछ भाग, मेरा हिस्सा ही अलग हो रहा हो, मुझसे कटा जा रहा हो, कुछ भीतर से टूटन सी महसूस हो रही थी" 

एक तरफ उसके विचारो के साथ द्वन्द और दूसरी तरफ प्रत्यक्ष बिछोह, 
माँ तय नहीं कर पा रही थी की किस्से जूझा जाय, 
अचानक बोली " बैठो गली नो १६ तक पैदल चलेंगे, मुझे वहां तक छोड़ आओ, आज स्कूटी नहीं लाई हूँ"

मैंने भी कुछ सोच के हाँ बोल दिया कि " हाँ चलो! थोडा सैर भी हो जाएगी"

गेट से बाहर निकलते ही स्कूटी की चाबी को हवा में लहराते बाल हंसी हँसते हुए कहने लगी " तू मुझसे इतना झूठ बोलता है, आज एक मैंने भी बोल दिया"  अब चल मेरे साथ

संशय में मुझसे कुछ कहा नहीं गया बस इतना ही कहा "नहीं, ये तो चीटिंग है" मैं बाहर से खुद को रोक रहा था, और भीतर से खींचा जा रहा था उसकी तरफ, स्कूटी की तरफ बढे जा रहा था. 
एक अनमने मन से मैं मना करता और फिर साथ माँ के जाने को तैयार सा भी रहता | 
इन सब हरकतों से माँ ने समझ लिया था कि अब तो नब्बू को ले ही जाउंगी |

फिर क्या था, मैं माँ के साथ पीछे स्कूटी में बैठ गया, और इस तरह उसके साथ सफ़र का साथी बन गया, उसके नेतृत्व में चल पड़ा मैं |

सम्भलते सम्भलते स्कूटी को चलाते माँ, मुझे अपने घर के पास ले गई| ......मन मे विचार कि "क्या बोल दूँ अम्ब को, अब चले जाऊं यहाँ से?" नहीं..कैसे कहूँ, इसी उधेड़-बन में माँ ने कहा चलो! 

स्कूटी पार्क हो चुकी थी, मैं अम्ब के पीछे सीढियों पर चढ़ने लगा, उतने में चौकीदार की आवाज आई..
" चाबी....."
अम्ब:- सिद्ध बाहर गया है (आश्चर्य से!) झटपट सीढ़ी से नीचे उतरते हुए 
मैं भी माँ के पीछे पीछे नीचे उतरने लगा, तभी माँ पलट के बोलती, " अरे! तुम वहीँ रुको, बिलकुल; बच्चे की तरह पीछे आ रहे हो, मींठी-डांट ने मुझे रोक दिया  और मैं तीसरे मंजिल की तरफ जाने लगा की जिस दरवाजे पर ताला लगा होगा वहीँ जाकर रुकुंगा |"
मेरे लिए ये सब अनायास हो रहा था, क्योंकि मैंने कभी नहीं सोचा था की माँ के साथ मैं घर पर जाऊंगा, सिद्ध से मिलूँगा...मेरी कल्पना में भी ये ख्याल कभी नहीं आये थे...

इससे पहले कई बार सार्वजनिक रूप से जब में माँ से मिलता तो उनके पाँव छूता था, और वो ठिठक सी जाती थी, उन्हें लगता था मैं ब्रह्मचारी हूँ, मुझे पाँव नहीं छूने चाहिए, लेकिन अगले ही पल उन्हें लगता था जैसे वो अपने कान्हा को, अपने नब्बू को गले से लगा ले, उसे अपने ही पास रख ले

हर बार मुझसे कहती, मैं तुझे परेशां कर देती हूँ न! क्या करूँ कान्हा मैं तड़प जाती हूँ अपने पुत्र को गले लगाने को, मैं सबसे कह दूंगी की मैं नब्बू की अम्ब हूँ, मैं नब्बू की माँ हूँ. फिर कोई कुछ नहीं सोचेगा....इस तरह हर बार वो अपनी ममता को दबा देती...   

भीतर पहुँचते ही, लग गई मेरी आवभगत में!!......पानी पियो...मैं नाश्ता बना देती हूँ आदि आदि...
किचन में घुस गई माँ......जब से मैं उनके अपार्टमेंट में घुसा था, बस छोटे से बच्चे की तरह बस उनके आगे पीछे ही घूम रहा था, इसलिए किचन में भी उनके साथ चले गया, वो तो बस मुझे कुछ खिलाना चाहती थी....

फिर एक पल रुकी...गहरी साँस ली और मुझे अपने आँचल से लगा लिया, उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था की उसका नब्बू, उसका बेटू  उसके पास था, आज वो मुझे कहीं नहीं जाने देना चाहती थी, मुझे खिलाना चाहती थी, निहारना चाहती थी |

अपने मोल लिए कान्हा को यशोदा के हिस्से का प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सबकुछ देना चाहती थी...
"नब्बू क्या सच में टू मेरे पास है...अनायास यही बोल पड़ती"   
         

No comments:

Post a Comment