Sunday 14 August 2016

मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।

 काल के कपाल पर सब अंकित हुआ
बुरा,भला, उदासीन सब टंकित हुआ
युग, मन्वन्तर, संवत्सर तक सब
इसके गर्भ में पुष्पित, पल्लवित हुआ।
क्षण,पल, "अहोरात्र" का बीज बोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।
मैं क्रांति, शांति और विश्रांति का आश्रय होऊं
निर्जन वन की मूकता का "नवनीत" बिलोउं
गीता के उपदेश को भी "वक़्त" मुहैया कराकर
रणभूमि में अर्जुन बनकर निज शोक को धोऊं
मैं "पाञ्चजन्य" की गूंज को पिरोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।
नदी किनारे ऋषियों के एकांत का साक्षी
वैदिक वाङ्गमय और वेदांत का साक्षी
उस दिव्य परिवेश की फिंजाओं में घुलकर
वैदिक युग के सर्वोच्च दर्शन का आकांक्षी
अपने में वेद, दर्शन, उपनिषद् संजोना चाहता हूँ
मैं "वक़्त" होना चाहता हूँ।

No comments:

Post a Comment