Sunday, 11 October 2015

संस्कृतप्रीति: जने-जने

संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम्
मातुः चरणे शिर: नवामि
यात्किम् अपि पार्श्वे सर्वं अर्प्यामि
संस्कृतभाषा ग्रामे-ग्रामे 
“कथं भवेत्” इति चिन्तयामि
संस्कृतभक्ति: गृहे-गृहे
ग्रामे-ग्रामे संस्कृतम्
संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम् ।।१।।
गृहे-गृहे संस्कृतं वदेत्
जीवने संस्कृति आगच्छेत्
सर्वेषाम् कृते माता एषा
जीवनदात्री सा भवेत्
संस्कृतशक्ति: गणे-गणे
मनसि- मनसि संस्कृतम्
संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम् ।।२।।
संस्कृत-भाषा देवभाषा
किमपि न लभते विना तस्या:
जीवने केवलं एकं लक्ष्यम्
“कथं भवेत्” जनभाषा एषा
संस्कृतरीति: आत्मनि आत्मनि
हृदये-हृदये संस्कृतम्
संस्कृतप्रीति: जने-जने
नगरे-नगरे संस्कृतम् ।।३।।
एषा संस्कृतरचना अहम् संवादशालायाम् रचित्वान...

आओं जीवन सुलझाते हैं...

आओं जीवन सुलझाते हैं...
जब स्वयं में विचलन हो,
ठहराव कि आस में उभरी तड़पन हो
मन बेलगाम हो, बस भागता हो
एक डर अनजाना कंपन हो
जब खुद को अकेले पाते हैं!
आओं जीवन सुलझाते हैं...
आँखों में.....
जब जीवन की धुंधली तस्वीर हो
धुंधला रास्ता, साफ़ दिल कि पीर हो
शरीर अपनी जर्जरावस्था को लिए
द्रवीभूत हुआ हृदय लिए आँखों में नीर हो
जब अकेले में हम खो जाते हैं
आओं जीवन सुलझाते हैं...
जब....
हृदय में फांस लगती है, गला अवरुद्ध हो जाता है
वो भयानक चीत्कार भी जब, कोई सुन नही पाता है
तुम्हारी अटकी सांसों में लटकता हुआ जीवन
एक क्षणजिंदगी पाने को दयनीय गुहार लगाता हो
जब अपेक्षाओं के ढेर पर, फैसले ढेर हो जाते हैं
तब...................आओं जीवन सुलझाते हैं...
तुम्हें पहली बार लगेगा कि तुम अब समाप्त हुए
जो हादसे नही होने थे इस वक्त, हादसे बेवक्त हुए
मुट्ठी भर आंसुओं कि कीमत तो हर कोई लगा देगा
उन आंसुओं का क्या जो दिल कि कैद में जब्त हुए
जब आँखों में आंसूं पाँव काँप जाते हैं
तब आओ जीवन सुलझाते हैं
समाधान..................
आंसुओं कि तह में जाकर उन्हें टटोलना
दुनिया से की हैं बातें अबतक अब स्वयं से बोलना
कुछ ढक गया हैं मेरा उजियारा, हृदय गुहा में
उन अन्धकार पाशों से खुद को हैं खोलना
जब शून्य में ठहरकर, कुछ देर ठहरना पड़ता है
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं
प्रेम कि भाषा समझना, प्रेमरस को तरस जाना
अहसांसों के मौसम में बन बूँद-बूँद बरस जाना
सूखे-घृणित हृदय प्रदेशों में, जर्जर मानसों में
प्रेमरस से सींचकर तू, भावपुष्पों को महकाना
जब ध्यान कि गहराइयों में, गहरा उतरना पढता है
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं...
सहजता और सजगता जीवन कि पहचान हैं
ह्रदय को कर तू निश्छल तेरा यही तो काम हैं
बिछा दे भावों को तू, डूबा के खुशियों में
हैं जीवन सहर तो मौत तेरी शाम है
पकड़कर हाथ शुभ आचरण का चढ़ना पड़ता है
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं...
मौत में जब तुझे जीवन दिखाई देगा
छोड़ दुखों के साथ को, खुशियों कि बलाई लेगा
तुझे भीतर मिलेगा सुख का सागर और लहरें आनंद कि
तेरा हर कदम "तू आनंदित है" ये गवाही देगा
प्रतिक्षण आनंद में, सुख में झूमना पड़ता हैं
जब....
हृदय में फांस लगती है, गला अवरुद्ध हो जाता है
वो भयानक चीत्कार भी जब, कोई सुन नही पाता है
तुम्हारी अटकी सांसों में लटकता हुआ जीवन
एक क्षणजिंदगी पाने को दयनीय गुहार लगाता हो
जब अपेक्षाओं के ढेर पर, फैसले ढेर हो जाते हैं
तब जाकर कहीं जीवन सुलझता हैं...


Saturday, 5 September 2015

शिक्षक दिवस पर: भाग- 4

शिक्षक दिवस पर: भाग- 4
मुझे मेरे पिताश्री कि एक बात याद आती है, की जो भी तुम्हे जीवन में, ज्ञान दे, तुम्हे तुम्हारी स्थिति से उबार दे, तुम्हे वही ना रहने दे, जो तुम हो... वे सब तुम्हारे गुरु बन जाते हैं जिंदगी में.. क्योंकि जहाँ हम बदलते हैं, अच्छे मायनो में, वही गुरु प्रकट हो जाता है! अँधेरा छंटता हैं, और प्रकाश उघड़ जाता है...इसी क्रम में, आज में याद करना चाहता हूँ उन गुरुओं को जिन्होंने मुझे जीवन पथ पर चलना सिखाया...
१- श्री हरीश राजन जी- E.I.DuPont India Pvt Limited
. श्री के. रामानाथन जी-E.I.DuPont India Pvt Limited
३- श्री श्रवन कुमार रेड्डी जी- E.I.DuPont Service Center India Pvt Limited
४- श्री मुनिश शर्मा जी एवं श्री वीरेंद्र जी- Chemtura Chemicals India Pvt Ltd.
श्री हरीश राजन जी एवं श्री के. रामानाथन जी का मेरे जीवन के ऊपर अत्यधिक रूप से प्रभाव पड़ा, जिनकी बातें मुझे हर समय प्रेरित करती रहती हैं, जो मुझे बहुत गहरे रूप में अपना भी मानते हैं, मुझे डाटने में भी जो सचुकाते नही हैं, आज मैं तहेदिल से उनको शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में, अपनी अंतरतम मनोभावना से उनका सम्मान कर्ता हूँ, उन्हें प्रणाम करता हूँ आप सदैव मेरे साथ बने रहे इसी आशा के साथ!
 
अंत में, जब मुझे नया अध्यात्मिक जन्म मिला...तो मुझे तेजस्वी, राष्ट्रभक्त, योग ऋषि, (विशेषण छोटे पड़ जाये) ऐसे पूज्य स्वामी रामदेव जी के रूप में गुरु मिले, जिन्होंने मुझे एक क्षण में, सब कुछ दे दिया, जिनके प्रेम भरे वरदहस्त से मैं पूर्ण हो गया, जिनके ममतामयी मुस्कान ने मुझे फिर कभी अधुरा नही रहने दिया..जिन्होंने मुझे हमेशा, वात्सल्य भरी आँखों से देखा, सबसे अधिक मुझे अपना शिष्य होने का गौरव प्रदान किया, आज दिन विशेष के दिन मेरा मस्तक उनके चरण कमलों में समर्पित है....और क्या कहूँ, स्वामी जी ने जिन गुरु से शिक्षा ग्रहण की, मुझे भी उनके चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिला हुआ है, ऐसे हमारे परम श्रद्धेय गुरूजी को भी मैं आज शीश नवाता हूँ, उनके ह्रदय से मेरा ह्रदय प्रेम से सिक्त हो जाये, उनके ज्ञान की गंगा मेरे अज्ञान रूपी मैल को धो दे, वे हम सब ब्रह्मचारियों को अपने आशीष से पोषित करें, इन्हीं आशाओं के साथ, सभी को शिक्षक दिवस की अशेष शुभकामनायें..ॐ

शिक्षक दिवस पर: भाग- 3

शिक्षक दिवस पर: भाग- 3
फिर मेरे शिशु मंदिर के "नवीन भैया" से
सिर्फ "नवीन" बनने का सफ़र शुरू हो गया,
मेरे आचार्य भी अब "सर जी" हो गए, 
कुछ भी करो, अब तो "मन मर्जी" हो गए, 
मेरा बस्ता, 
धीरे धीरे दम तोड़ने लगा,
शिष्यत्व कम क्या हुआ, हम "फर्जी" हो गए
कुछ देर के लिए फिसल गए
देर से सही, लेकिन संभल गए,
मुझे कुछ "सर जी" में,
आचार्य दिखने लग गये
जिन्होंने हम सबको (श्याम, गौरव, प्रशांत)
12 वीं पास कराया
फिर मैंने जीवन पथ पर
पांव बढ़ाया
मैंने गुरु समूह पाया---(आ. शुक्लाजी, पाण्डेय जी, सिद्धकी सर, पीताम्बर सर, और आ. मदन सिंह जी "मास्साब")

शिक्षक दिवस पर: भाग- 2

शिक्षक दिवस पर: भाग- 2
फिर मैं कान्हा बन, मिटटी में खेलने लगा, 
दूध भी चुराया, दोस्तों संग टहलने लगा,
फिर इसी बीच,
मेरी पड़ोस की भाभी, मेरी गुरु बन के आई, 
उन्होंने, हम बच्चो की हर शाम कक्षा लगाई,
इस तरह सामजिक स्तर पर, 
मुझे मिली मेरी पहली टीचर,
जिनके स्नेह, डांट और प्यार में,
मीठी सी मार और, फटकार में, 
मैंने शिष्यत्व(सामजिक स्तर पर)
बचपन पाया
मैंने अपना गुरु पाया---भाभी (आंगनवाडी)
5 किलोमीटर दूर,
मैं मजबूर,
मुझे मेरा पहला विद्यालय मिला
कमरों में कैद मुझे, ज्ञान का मंदिर मिला,
मुझे शिशु मंदिर मिला
किताबों की दुनिया से मेरी पहचान हुई, 
भारी बस्ते, से वर्षो फिर खींचातान हुई,
आचरण, नैतिकता, देश प्रेम से सराबोर
स्वयं में प्रफुल्लित, पुलकित
मैंने खुद में एक विद्यार्थी पाया
मैंने पहला आचार्यगण पाया---"आचार्य दिनेश पाण्डेय जी, आचार्य खीमानन्द जी एवं बहन जी)

शिक्षक दिवस पर: भाग-1

शिक्षक दिवस पर: भाग-1
मैं 3 रात्रि नही, पुरे नौ महीने साक्षात्
गुरु के
साक्षात् गर्भ में रहा
मेरे गुरु ने, मुझे अंधकार से बाहर निकालने 
में हर वो दर्द सहा,
मेरी खुले आसमान में
उड़ने की चाहत
को पंख दिए
मुझे स्वयं का अंश बनाकर
स्वयं को दर्द दिए
फिर एक दिन....
21 फ़रवरी सन् 1989
मैंने खुला आसमान, 
प्रकाश पाया
मैंने अपना पहला गुरु पाया--माँ
फिर मैं, एक उंगुली पकड़ कर चला
उस गुरु की,
जो थोड़े से सख्त, काफी भले थे,
मुझे जीवन पथ पर चलाने चले थे
अपने आचरण से मुझे,
सिखाने चले थे..."जीवन"
मैंने खुला रास्ता, 
सहज प्रवाह पाया
मैंने अपना दूसरा गुरु पाया--पिताश्री

Wednesday, 2 September 2015

"रिश्ता"

"रिश्ता" जो ये शब्द है,
आपसी जुडाव है
बिन धागों का, 
बिन अटकलों का 
स्वतंत्र बहाव है 
इसमें भावों के सहारे
घर खड़े किये जाते हैं
प्रेम की सींचन से इसकी
जड़ें मजबूत किये जाते हैं
तब जाकर कहीं,
इसमें बहा जाता है
इसमें रहा जाता हैं
वाणी जिसमें मौन रह जाती हैं
शब्द जिसमें शोर बने जाते हैं,
एक छोटा सा सहारा "मैं हूँ ना"
जिसमें ध्येय वाक्य बन जाते हैं
"रिश्ता" जो ये शब्द है,
आपसी जुडाव है
बिन धागों का,
बिन अटकलों का
स्वतंत्र बहाव है

Monday, 31 August 2015

मैंने त्याग दिया अपना हठ!

आजकल मैं अहसासों
के बलबूतों पर जी रहा हूँ।
मुझे हर क्षण मिलती हुई
ऊर्जा के सबूतों पर जी रहा हूँ।
मैं एक कदम बढ़ाता हूँ,
खुश होता हूँ ..
फिर उसका स्वाद लेकर,
मैं एक कदम और बढ़ाता हूँ....
इस तरह, खुद कि खिदमतों पर जी रहा हूँ...
आजकल मैं अहसासों
के बलबूतों पर जी रहा हूँ।
सुबह ध्यान की गहराइयों में शेंध मारता हूँ
चुपके से निकल फिर, संगीत साधता हूँ,
एक बचपन मेरा फिर सा जागा हैं,
अब मैं तितलियों के पीछे भागता हूँ,
ये सब क्यों हो रहा हैं मेरे साथ,
शायद.....
अब मैं बचपन की जरूरतों पर जी रहा हूँ,
आजकल मैं अहसासों
के बलबूतों पर जी रहा हूँ।
मैंने त्याग दिया अपना हठ,
जो मुझे तथाकथित बुद्धिजीवी बनाता था,
मेरे अहंकार के विलुप्त होने पर,
मेरे भीतर की भटकन के जब्त होने पर,
सारा अस्तित्व प्रेम से सिक्त होने पर,
अब मैं पुनः अपनी शर्तों पर जी रहा हूँ
आजकल मैं अहसासों
के बलबूतों पर जी रहा हूँ।
मुझे हर क्षण मिलती हुई
ऊर्जा के सबूतों पर जी रहा हूँ।

राह चलते मुझे दिख जाते हैं, कुछ "लोग"

राह चलते मुझे दिख जाते हैं,
कुछ लोग!!
वास्तव में उन्हें "लोग" कहना सही होगा
या नहीं, पर जो भी कहूँ वो सतही होगा
चलते चलते 
"मैं" खो सा जाता हूँ
एक "अड़चन" मेरे बीच आ जाती हैं
मेरी उदासी, मुझे अकेली पाती हैं
और यह सोचकर,
कुछ देर मेरी सहचरी, मेरी साथी बन जाती है
विरोधाभास, मुझे पटकता है,
मेरी चलती हुई सांसों में अटकता है,
फिर एक पल,
में "सबकुछ" भूल जाता हूँ
क्यूंकि "बस" के इन्तेजार में,
जो मेरा चलना था, वो ठहर जाता है,
मैं घिर जाता हूँ
अपने ही संघर्ष में
सच कहूँ तो मैं "सबकुछ" भूल जाता हूँ...
राह चलते मुझे दिख जाते हैं,
कुछ लोग!!
जो मुझे बड़े सूकून में लगते हैं
फटेहाल, बेहाल, बदहाल
मुझे ऊपर से दिखते हैं
मेरी मुसीबत है, उनका यूँ
फटेहाल रहना,
उनका यूँ सूकून में रहना
में अपने साथी को कहता हूँ,
सुख जिसको नसीब नही हैं
शायद तभी ..
दुःख की झकल भी
नही पाते हैं
कुछ लोग!!
राह चलते मुझे दिख जाते हैं,
कुछ लोग!!
इतना मानते ही
मेरी हालत बद से बदतर हो जाती हैं
रात सोचते सोचते कभी सहर हो जाती है,
पर मेरा एक ही सवाल होता हैं
मैं उनकी आंतरिक ख़ुशी सहेजुं
या उनके बाह्य रूप को सवारूँ
मैं उनके लिए कुछ करूँ
या मैं मुँह फेर लूँ,
अपनी जिम्मेदारी से या..उनसें
जो
राह चलते मुझे दिख जाते हैं,
कुछ लोग!!

Wednesday, 26 August 2015

सुख का हक

पहले मैंने खुश रहने की कसमें खाई...
गूगल सर्च मारा,
101 तरीके भी अपनाएं..
फेंक स्माइल करते करते
मेरा मुहं थक गया...
वास्तव में खुश रहने के चक्कर में,
मैं बहक गया..
फिर मैंने अपनी जिंदगी बदली,
और फिर रास्ते
सबकुछ आसान सा फिर भी ना रहा
फिर भी बेमन मैं सहता रहा, कहता रहा..
कुछ और रास्ते
कुछ और रास्ते...
मैं वही रहा, रास्ते बदलते रहे...
मैं खो सा गया केवल रास्ते चलते रहे
मंजिल तो मुझे पानी थी,
और पहुँच रास्ते गए,
इस खोयेपन के बीच,
उदासी के बीच, मेरे अकेलेपन के दरमियाँ
मुझे एक विचार कौंधा, जैसे....
आता-जाता हवा का झरोखा
और कह गया रास्ता मत बदल,
राह कोई भी हो चलेगा, तू अपनी चाल बदल
तू अपनी सोच बदल,
तू जी ले हर सुख के क्षण को
तू सहेज कर रख हर उस कण को
जिसमें तू जिन्दा था,
दुःख में दुखी हो, कोई बात नहीं,
लेकिन सुख के क्षण को भी हक दे उसका,
लेकिन सुख के क्षण को भी हक दे उसका

नाम मात्र की कविता

सुनो मैं कुछ कहना चाहता हूँ!
कुछ अव्यक्त सी बातें हैं....
कुछ बिन सोई रातें हैं....
कुछ सीने में छुपे हुए राज हैं...
कुछ मेरे अनछुए अंदाज़ हैं....
सुनो मैं कुछ कहना चाहता हूँ!
मैं अपने ही ख्वाबों में रहना चाहताहूँ!
मैं कितना ही फिक्रमंद हो जाऊं
मैं भीड़ चीर, आज़ाद हो जाऊं,
मैं कितना हि चिल्ला ना लूँ....
मेरी आवाज़ मेरे सीने में दफ़न रह जाती है,
फिर एक कशक, एक टीस और जवां हो जाती है...
उस दर्द को मैं ढोता रहा हूँ अब तक,
जाने-अनजाने मेरे ह्रदय पटल पर
होती रहती है वो आह भरी दस्तक
मायूस-अनजान सा मेरा रस्ता फिर रुक जाता हैं
मेरा जिंदगी में आगे बढ़ा पांव, कुछ इंच पीछे
खिसक जाता है...बेबुझ सा मेरा दिल दहल सा जाता है
मैंने पहले ही कहा था....कि
मैं कुछ कहना चाहता हूँ!
कुछ अव्यक्त सी बातें हैं....
कुछ बिन सोई रातें हैं....
ये सब तो शब्द मात्र हैं,
मेरी वाणी तो मौन हैं
यही मेरी समस्या हैं कि मुझे समझता कौन है?
मेरे शब्दों में मेरे भाव खो जाते हैं...
मेरी व्यक्त करने की इच्छा अधूरी रह जाती है
और पीछे छूट जाती है नाम मात्र की कविता.....
और पीछे छूट जाती है नाम मात्र की कविता.....

Saturday, 22 August 2015

विचार-अनायास

हर क्षण जब है मरण यहाँ तो
पल-पल हमको जीना होगा...
छोड़ सभी झंझट जीवन की,
खोज अमृत पीना होगा.....
प्रेम ही वह, अमृत पानी
जिसपर टिका है ये अभिमानी
देह से अलग सत्ता हैं जिसकी..
कहते उपनिषद जिसकी कहानी..
आज नही तो, कल तो हमको,
फटता ह्रदय सीना होगा...
छोड़ सभी झंझट जीवन की,
खोज अमृत पीना होगा.....

.........................................................
.........................................................
हर पल जीवन बरस रहा है,
तू क्यों बन्दे तरस रहा है?
बस खुद तो तू प्रेम बना ले,
बूंद-बूँद वो रिस जो रहा है!!

...........................................................
............................................................
तुम्हें अपने विचारों की धूल हटानी होगी,
तुम्हें अपने अतीत से खाली होना होगा...
तुम्हें आज, अभी इसी क्षण जीना होगा...
तुम्हें अज्ञात में एक छलांग लगानी होगी..
तुम्हें घृणा छोड़ प्रेम अपनाना होगा...
तुम्हें अपने से पार जाना होगा...
तुम्हें संगीत से प्रीत बढ़ानी होगी..
तुम्हें आनंद में नाचना होगा...
तुम्हें हर पल मुस्कुराना होगा.....
फिर देखना तुम, तुम न रह सकोगे...तुम "वह" हो जाओगे जो कभी आप होना चाहते थे जाने अनजाने....

Monday, 17 August 2015

स्वयं का जागरण ही, स्वयं की मंजिल है!

स्वयं का जागरण ही, स्वयं की मंजिल है!
बहुत सीधा है रास्ता, न कोई मुश्किल है
बस साक्षी भाव से स्वयं को
तुम अपने देह से अलग पहचान लो
क्षण-क्षण ऐसे बिता दो, इसमें,
तब जाकर खुद का खुद से ज्ञान हो
बस जीने के लिए मरना इसमें तिल-तिल है
स्वयं का जागरण ही, स्वयं की मंजिल है!..


सुकून क्या चीज़ है?
सबकुछ मिलजाने का जूनून है!
संतोष क्या बला है?
कुछ न पाने का सुकून है!!---थोडा अजीब है लेकिन मूल्यवान पंक्ति है-नवीन

बूंद वही सागर में समाया है!!

जिनको अहंकार समझ में आया है,
उनको जीना खूब आया है!
समर्पण जिनके पास है "नब्बू"
बूंद वही सागर में समाया है!!
छोड़ो दौड़ा-भागी, ये आपाधापी
एक संकल्प है जिसने अपने दम पर दुनिया नापी,
आनदं वंचित वही रहा, विकल्प जिसने पाया है
समर्पण जिनके पास है "नब्बू"
बूंद वही सागर में समाया है!!
सतत प्रयास की धारा में
बढ़ना जिसने सीखा है
रोक पाई क्या दुनिया उसको
जिसका संकल्प चट्टान सरीखा है
क्या रुका है कभी वह, ईश्वर जिसकी छत्र-छाया है
समर्पण जिनके पास है "नब्बू"
बूंद वही सागर में समाया है!!
ज्ञान नही विज्ञान का पूजक
वह अपना निर्माता है
कदम-कदम को अनुभव करके
मंजिल अपनी पाता हैं
संसार वृक्ष से अलग पड़ा वह, संसार तो बस माया है
समर्पण जिनके पास है "नब्बू"
बूंद वही सागर में समाया है!!---नवीन

Thursday, 13 August 2015

मुझे आज भी याद है!

वो गाय, गोबर और अपनों का साथ

अम्मा की धात, बारात की दाल भात
मुझे आज भी याद है!

वो नंगे पांव मिट्टी कुचलना
दिन दोपहर बस चलते रहना
मुझे आज भी याद है!

वो बारिश का कच्यार, और पहाड़ी प्यार
वो ऊँचे पेड़, वो गाड़ गध्यार ...
मुझे आज भी याद है!

अँधेरे में सुबह बैल जोतना
वो बुवाई, खेतों में मंडवा रोपना,
मुझे आज भी याद है!

वो भारी कंधे, और पैदल रस्ता
स्कूल की यादें, वो भारी बस्ता
मुझे आज भी याद है!

वो रोटी का रोल, सेहत अनमोल
क्रिकेट की दीवानगी, वे पहाड़ी बोल
मुझे आज भी याद है!
मैं कुछ ना भूला, मुझे सब याद है!!

क्षण-क्षण बीता, जीवन बीता

क्षण-क्षण बीता, जीवन बीता
कुछ ना पाया, जीवन रीता...जीवन रीता
बेबुझ पहेली, जीवन शैली
गंगा नहाया, फिर भी मैली
हर-पल मरता, में जीता जीता
क्षण-क्षण बीता, जीवन बीता....
कुछ ना पाया, जीवन रीता...जीवन रीता
धर्म को जाना, धर्म पढ़ा
शास्त्रों को अपने मन से गढ़ा
फिर भी बेबुझ आज तक गीता
क्षण-क्षण बीता, जीवन बीता
कुछ ना पाया, जीवन रीता...जीवन रीता
प्रेम की भाषा, क्या परिभाषा
सीधा रस्ता, ना कोई झांसा
निश्छल, प्यारा खयाल संजीदा
क्षण-क्षण बीता, जीवन बीता
कुछ ना पाया, जीवन रीता...जीवन रीता

शीघ्र प्रकाश्य ग्रन्थ!

बहुत ही शीघ्र यह बृहद ग्रन्थ आप सब संगीत प्रेमियों के हाथ में होगा, जो कि शास्त्रीय संगीत को एक नई ऊंचाई पर ले जायेगा
परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज जी द्वारा इस ग्रन्थ पर अपने आशीर्वचन समर्पित किये गए हैं!
! मेरे पूज्य पिताजी श्री बिशन दत्त जोशी "शैलज" जी के लगभग १० सालों कि कड़ी मेहनत, लगन व समर्पण भाव से यह ग्रन्थ अब जाकर मूर्त रूप ले रहा हैं, जिसे मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा प्रकाशन हेतु चयनित भी किया गया हैं!
जिसको भी अपनी प्रति सुरक्षित करवानी हो वो लेखक से संपर्क करवा सकते हैं..

Wednesday, 12 August 2015

अकेले में:

अकेले में:
प्रेम भरी हो बतियाँ तेरी, प्रेम भरा व्यवहार हो
सब में कर लें प्रभुदर्शन तु, सबके प्रति तेरा प्यार हो!
सारा जग तेरा घर साथी, सारी जनता परिवार हैं तेरा
मात-पिता वह एक हैं ईश्वर, प्रकृति ही संसार है तेरा
प्रेम से सबके दिल में उतर तु, प्रेम से कर तु जग को पार
प्रेम ही तेरा परिचय साथी, प्रेम ही ईश्वर का है सार
प्रेम ही आशा, विश्वास तेरा, प्रेम जीवन संचार हो
प्रेम भरी हो बतियाँ तेरी, प्रेम भरा व्यवहार हो
सब में कर लें प्रभुदर्शन तु, सबके प्रति तेरा प्यार हो!
यो मां पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयि पश्यति
तस्याहं न प्रणश्यामि स च न मे प्रणश्यति..गीता

एक टीस! मचलती हैं कसमसाती हैं!!

एक टीस!
मचलती हैं कसमसाती हैं
कभी खुद से दूर करती 
कभी पास लाती हैं!
हा! बछो ने सुख ना दिया 
हमने क्या क्या न किया
यह बात रह-रह सताती हैं!
एक टीस!
मचलती हैं कसमसाती हैं
अहम् भाव भी ठम्म ठेलता हैं कभी,
हमारे बाप होने का भी फायदा क्या
बच्चे ठोकर मारते हमारे निर्देशों को
ऐसे परिवार का कानून क्या कायदा क्या,
एक डरावनी आह, चुभती, डराती हैं,
एक टीस!
मचलती हैं कसमसाती हैं
हर तरफ कुछ कमी सी हैं
कुछ भी पूर्ण नही, दिल में नमी सी हैं,
माँ बाप की आशाएं....बच्चो
हमको भी तो समझों
सारा जहीन समझने में, बिसरो न हमको,
बिसरों न हमको!!!!

देख आगे तेरे अनंत आकाश हैं,

एक मन!!
तू पार चला जा,
देख आगे तेरे अनंत आकाश हैं,
तोड़ दाल बंदिशों को
छोड़ डाल रंजिशों को, 
तू मत पड़ संसार में, यह केवल मोहपाश हैं,
तू पार चला जा,
देख आगे तेरे अनंत आकाश हैं,
तू लम्बी उड़ान भर,
मत उलझ, तू तान भर,
तू बढ़ता चल राह में, तुझे न अवकाश हैं,
तू पार चला जा,
देख आगे तेरे अनंत आकाश हैं,
छील डाल अपने मुखोटों को,
दर्द को अपने, चोटों को,
देख तू अब मुहं न मोड़, बस यही एक आस है,
तू पार चला जा,
देख आगे तेरे अनंत आकाश हैं,
एक और मन....
देख तू अब मान भी जा, आ संसार में लौट आ,
सब तो तेरे पास हैं यहाँ, अब तो तू लौट आ,
मत छोड़ तो ईश गान, बस राह तू ले बदल,
जनक विदेह के रूप में, अब तो तू लौट आ,
देख तू अब मान भी जा.....
बन प्रेममय आदर्श तू, गृहस्थ धर्म का सिरमौर तू
क्यों हैं पगले भागता क्यू ढूंढ़ता हैं कहीं ठौर तू,
जीतनी हैं तुझे गर दुनिया, नजदीक से पकड़ इसे,
मोक्ष पाले राम जैसे, भगवान मानती दुनिया जिसे,
विनय तुझको बार बार, इस संग्राम में लौट आ
देख तू अब मान भी जा, आ संसार में लौट आ...
ऐसे व्यथा एक जान की, चिंता भी अपने आन की,
ताजू निज संकल्प अपना, ये बात हैं अपमान की,
हां ये कैसे घडी हैं आई,
किसको बोलूं ये पीर पराई!

कुछ करना हैं, कुछ खास करना हैं!

कुछ करना हैं, कुछ खास करना हैं! 
बेहद, पराकाष्ठा, बेह्ताहाश करना हैं....
कुछ यूँ की, सुकूं मिल सके,
उस ऊंचाई का एहसास करना हैं!

सफ़र तो सबका कटता हैं, इस ज़माने में,
कौन नही मर रहा हैं "कुछ" कमाने में,
पर मैं उनमे से "वो" नहीं........
जिसे इंतज़ार हैं "समय" बीत जाने में....

एक सिद्दत से सब खो जाना हैं, 
कुछ पास में नही जो ले जाना हैं,
इस कदर खुद को "खाली" कर "नवीन"
जीवन में सब कुछ "भर" जाना हैं....

जो पूर्ण प्रेम का स्वामी हैं, 
निश्छल, निर्मम निष्कामी हैं,
चाल समय की वही बदलेगा...
जो समय संगामी हैं ....

Feelings Uncontrolled!

विकास क्या? विकास की परिभाषा क्या?
विकास कैसा? विकास की भाषा क्या?
विकास कितना जरूरी, विकास किसका जरूरी?
सुख-साधनों के जंजाल की कैसी मजबूरी?
ख़ुशी-शांति ही विकास हैं...
परस्पर प्रेम का आभास हैं..
सृष्टि में एकत्व का एहसास है..
संतोष ही तो विकास है!!!
निष्कलंक हो, निष्पाप हो..
ऐसी विकास की छाप हो
मानव ही नही, सृष्टि भी हो समन्वित,
न कहीं जीवन में त्रय-ताप हो....
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उसको पाने की ललक इतनी ज्यादा क्यूँ हैं....
वह खूब दूर है, पर आस इतनी ज्यादा क्यूँ हैं.....
मैं अभी खुद को ना पा सका इतने दिनों में
पर उसे पाने की चाह इतनी ज्यादा क्यूँ हैं????
शायद ललक और तड़प में भेद है!!
ललक अनेकों में, पर तड़प तो एक है!!...."ईश्वर तड़प का विषय हैं ललक का नहीं"
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सत्य और झूठ में फर्क किया हैं जिसने,
 "देकर श्रद्धा सत्य में" फर्क किया हैं जिसने
"झूठ में अश्रद्धा देकर" महीन फर्क किया हैं जिसने 
उस "एक" की पूजा करनी हैं, दिन रात में फर्क किया हैं जिसने....
                                
"वो है" सब ओर है...
कण-कण में, उस "एक" का ही शोर है... 
"वो है" सब ओर है...
पग-पग में, उस "एक" का ही जोर है....
"वो है" सब ओर है...
पल-पल में, उस "एक" का ही ठौर है...
"वो है" सब ओर है..."वो है" सब ओर है...                        

सब कहते हैं, वो है!
पर कौन कहता है, "वो है", मैंने देखा है!
कुछ कहते हैं, वो है! पर देखा नही है!
फिर कुछ और कहते हैं, "वो है" पर दिखता नही हैं!!
कोई कहता हैं, "वो मैं ही हूँ"!! मैं वही हूँ......"अहम् ब्रह्मास्मि"

झूठ बोलना कितना कठिन, और सच कितना आसान हैं,
झूठ साक्षात् राक्षस और सच "सच" में भगवान् हैं....
फिर क्यों सब इस झूठ की महिमा गा रहे हैं???
लेकिन "मैं" क्यूँ झूठ बोल रहा हूँ? उफ्फ उफ्फ उफ्फ....

सबकुछ अजीब हैं, सबकुछ अनकहा हैं.
कुछ डर अन्दर ही अन्दर कसमसा रहा हैं!
दिल खोलकर रख दूँ आज खुदा के सामने
ऐसा खुलापन आज क्योंकर सता रहा हैं! .....
एक "बैचन" जिसको कुछ कहना हैं और सुनने वाले बहुत हैं लेकिन वो सुनाना किसी "एक" को चाहता हैं...!