विकास क्या? विकास की परिभाषा क्या?
विकास कैसा? विकास की भाषा क्या?
विकास कितना जरूरी, विकास किसका जरूरी?
सुख-साधनों के जंजाल की कैसी मजबूरी?
ख़ुशी-शांति ही विकास हैं...
परस्पर प्रेम का आभास हैं..
सृष्टि में एकत्व का एहसास है..
संतोष ही तो विकास है!!!
निष्कलंक हो, निष्पाप हो..
ऐसी विकास की छाप हो
मानव ही नही, सृष्टि भी हो समन्वित,
न कहीं जीवन में त्रय-ताप हो....
-2-
उसको पाने की ललक इतनी ज्यादा क्यूँ हैं....
वह खूब दूर है, पर आस इतनी ज्यादा क्यूँ हैं.....
मैं अभी खुद को ना पा सका इतने दिनों में
पर उसे पाने की चाह इतनी ज्यादा क्यूँ हैं????
शायद ललक और तड़प में भेद है!!
ललक अनेकों में, पर तड़प तो एक है!!...."ईश्वर तड़प का विषय हैं ललक का नहीं"
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विकास कैसा? विकास की भाषा क्या?
विकास कितना जरूरी, विकास किसका जरूरी?
सुख-साधनों के जंजाल की कैसी मजबूरी?
ख़ुशी-शांति ही विकास हैं...
परस्पर प्रेम का आभास हैं..
सृष्टि में एकत्व का एहसास है..
संतोष ही तो विकास है!!!
निष्कलंक हो, निष्पाप हो..
ऐसी विकास की छाप हो
मानव ही नही, सृष्टि भी हो समन्वित,
न कहीं जीवन में त्रय-ताप हो....
-2-
उसको पाने की ललक इतनी ज्यादा क्यूँ हैं....
वह खूब दूर है, पर आस इतनी ज्यादा क्यूँ हैं.....
मैं अभी खुद को ना पा सका इतने दिनों में
पर उसे पाने की चाह इतनी ज्यादा क्यूँ हैं????
शायद ललक और तड़प में भेद है!!
ललक अनेकों में, पर तड़प तो एक है!!...."ईश्वर तड़प का विषय हैं ललक का नहीं"
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सत्य और झूठ में फर्क किया हैं जिसने,
"देकर श्रद्धा सत्य में" फर्क किया हैं जिसने
"झूठ में अश्रद्धा देकर" महीन फर्क किया हैं जिसने
उस "एक" की पूजा करनी हैं, दिन रात में फर्क किया हैं जिसने....
"देकर श्रद्धा सत्य में" फर्क किया हैं जिसने
"झूठ में अश्रद्धा देकर" महीन फर्क किया हैं जिसने
उस "एक" की पूजा करनी हैं, दिन रात में फर्क किया हैं जिसने....
"वो है" सब ओर है...
कण-कण में, उस "एक" का ही शोर है...
"वो है" सब ओर है...
पग-पग में, उस "एक" का ही जोर है....
"वो है" सब ओर है...
पल-पल में, उस "एक" का ही ठौर है...
"वो है" सब ओर है..."वो है" सब ओर है...
कण-कण में, उस "एक" का ही शोर है...
"वो है" सब ओर है...
पग-पग में, उस "एक" का ही जोर है....
"वो है" सब ओर है...
पल-पल में, उस "एक" का ही ठौर है...
"वो है" सब ओर है..."वो है" सब ओर है...
सब कहते हैं, वो है!
पर कौन कहता है, "वो है", मैंने देखा है!
कुछ कहते हैं, वो है! पर देखा नही है!
फिर कुछ और कहते हैं, "वो है" पर दिखता नही हैं!!
कोई कहता हैं, "वो मैं ही हूँ"!! मैं वही हूँ......"अहम् ब्रह्मास्मि"
झूठ बोलना कितना कठिन, और सच कितना आसान हैं,
झूठ साक्षात् राक्षस और सच "सच" में भगवान् हैं....
फिर क्यों सब इस झूठ की महिमा गा रहे हैं???
लेकिन "मैं" क्यूँ झूठ बोल रहा हूँ? उफ्फ उफ्फ उफ्फ....
सबकुछ अजीब हैं, सबकुछ अनकहा हैं.
कुछ डर अन्दर ही अन्दर कसमसा रहा हैं!
दिल खोलकर रख दूँ आज खुदा के सामने
ऐसा खुलापन आज क्योंकर सता रहा हैं! .....
एक "बैचन" जिसको कुछ कहना हैं और सुनने वाले बहुत हैं लेकिन वो सुनाना किसी "एक" को चाहता हैं...!
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