पहाड़ो की हरियाली....और,
वो नरसंहार! वो खुनी मंजर!
गुमनाम चींखें, वो सहमी सांसे..
चीख-चीख कर........कहती रही..
मैं निर्दोष हूँ!!
कुछ सांसे थम सी गई,
कुछ लडती रही विरोध में,
कुछ बेबस, लाचार....
लिए लाशों को गोद में....कहती रही
मैं निर्दोष हूँ!!
डर के साये में बहता रहा,
कुदरत का कहर....सहता रहा
हर वो शख्स अपना ही तो था,
आई जिसे मौत नजर.......कहता रहा,
मैं निर्दोष हूँ! मैं निर्दोष हूँ!!
मानव का उतावलापन....और,
विकास का विकृत रूप
मिटा ले गया स्वयं के अस्तित्व को....और
करता रहा नित नए साजिश गुपचुप.....कहता रहा
ये तो मेरा दोष! ये तो मेरा दोष!!
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