Sunday, 14 August 2016

रात के पौने 2 बजे हैं।



रात के पौने 2 बजे हैं।










सब सोये हुए लगते हैं, बस एक झींगुर मेरा साथ दे रहा है।
बताते हुए थकता ही नहीं है कि "वो" मेरा साथ दे रहा है।
अरे हाँ! एक पंखा भी है जो मेरे ऊपर मंडरा रहा है
खतरे की तरह नहीं!!!! ठंडक बनकर छितरा रहा है
रात्रि की आरामदायक "गोदी" है
पर आज ये निंदिया की विरोधी है
आज इसके आगोश में खुले हाथ, बंद नहीं होते
चलो रोज हुआ सोना, आज हम भी नहीं सोते
इतना सुनते ही "कोई कहीं" मुस्काया है
रात के पौने 2 बजे हैं।

कभी जगे थे कुलबुलाहट से
कभी जगे थे घबराहट से
कभी जगे थे निंदिया की "आहट" से
पर आज का जगना तो रोएँ रोएँ की मांग है
शायद "दर्द", के पार जाने की कोशिश, छलांग है।
लिखते लिखते "छोटी" ने डांट लगाई होगी
यही- कि रात के पौने 2 बजे हैं (सो जाओ)

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