Wednesday 6 December 2017

बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर-2

बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर
हे परमात्मा! हे परमेश्वर!
बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर

तुम करुणा के सागर हो प्रभु
तुझको अर्पण मैं क्या कर दूँ
जीवन पुष्प को तुमने खिलाया
उसी को चरणों में तेरे धर दूँ
तुम करुणा के सागर हो प्रभु
तुझको अर्पण मैं क्या कर दूँ
सबके दाता, सबके ईश्वर
बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर
हे परमात्मा! हे परमेश्वर!

राह दिखाई, चलना सिखाया
अपनी छाँव में पलना सिखाया
तुम ही मेरे एकमेव आराध्य हो
तेरे कारण संसार में बह ना पाया
और न मांगू कोई दूजा वर
बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर
हे परमात्मा! हे परमेश्वर!
तूने राह दिखाई, चलना सिखाया
अपनी छाया में पलना सिखाया
हर पल को जी लूँ, क्षण को जी लूँ
तूने मुझको "कल" ना सिखाया
पल को न भूलूँ मैं जीवन भर
बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर
हे! परमात्मा हे! परमेश्वर

तू ही सहारा, तू ही आसरा है
हृदय में तू ही, तू ही भरा है
कैसे बाटूँ तुझको सबमें
तू तो सबके भीतर ठहरा है
तेरे सिवा लागे मुझे सब नश्वर
बहुत अनुग्रह कीन्हों मोपर
हे! परमात्मा, हे! परमेश्वर

Monday 13 November 2017

कर्म_कारक 【#Objective_Case】

#कर्म_कारक 【#Objective_Case
१.सूत्र:- #कर्तुरीप्सिततमम्_कर्मः
व्याख्या:- कर्ता की अत्यंत इच्छा जिस काम को करने में हो उसे कर्म कारक कहते हैं।
या, क्रिया का फल जिस पर पड़े, उसे कर्म कारक कहते हैं।
कर्म कारक का चिह्न "o, को" है।
यथा :- रमेश फल खाता है । रमेशः #फलम् खादति।
मोहन दूध पिता है । मोहनः #दुग्धं पिबति।
यहाँ फलम् और दुग्धं कर्म कारक है क्योंकि फल भी इसीपर पर रहा है और कर्ता की भी अत्यन्त इच्छा भी इसी काम को करने में है।
२.सूत्र:- #कर्मणि_द्वितीया
व्याख्या :- कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है।
यथा:- गीता चन्द्रमा को देखती है। गीता #चंद्रम् पश्यति।
मदन चिट्ठी लिखता था । मदनः #पत्रं लिखति।
यहाँ चंद्रम् और पत्रं में द्वितीया विभक्ति है,क्योंकि ये दोनों कर्म कारक हैं।
३.सूत्र:-#क्रियाविशेषणे_द्वितीया
व्याख्या:- क्रिया की विशेषता बताने वाले अर्थात् क्रियाविशेषण (Adverb) में द्वितिया विभक्ति होती है।
【क्रियाविशेषण- तीव्रम् , मन्दम् ,मधुरं आदि।】
यथा:- (क) बादल धीरे-धीरे गरजते है। मेघा: मन्दम्-मन्दम् गर्जन्ति। (ख) प्रकाश मधुर गाता है। प्रकाशः #मधुरं गायति।(ग)वह जल्दी जाता है। सः #शीघ्रं गच्छति।आदि
४.सूत्र:-#अभितः_परितः_सर्वतः_समया_निकषा_प्रति_संयोगेऽपि_द्वितिया
व्याख्या :-उभयतः,अभितः(दोनों ओर), परितः (चारों ओर), सर्वतः (सभी ओर), समया( समीप), निकषा (निकट), प्रति (की ओर) के योग में द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा:-(क) गाँव के दोनों ओर पर्वत हैं। #ग्रामं अभितः पर्वताः सन्ति ।(ख) विद्यालय के चारों ओर नदी है। #विद्यालयम् परितः नदी अस्ति। (ग) घर के सब ओर वृक्ष हैं। #गृहम् सर्वतः वृक्षाः सन्ति। (घ) तुम्हारे घर के समीप मंदिर है। तव #गृहम् समया मन्दिरं अस्ति। (ङ) मंदिर की ओर चलो। #मन्दिरं प्रति गच्छ। आदि
५.सूत्र:- #कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे_द्वितिया
व्याख्या :- कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में यदि क्रिया का अतिशय लगाव या व्याप्ति हो तो द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा :- कोस भर नदी टेढ़ी है। #क्रोशम् कुटिला नदी ।
मैं महीने भर व्याकरण पढ़ा। अहम् #मासं व्याकरणं अपठम्।
६. सूत्र:- #विना_योगे_द्वितिया ।
व्याख्या:- "विना" के योग में द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा :-(क) परिश्रम के बिना विद्या नहीं होती ।
#परिश्रमम् विना विद्या न भवति ।
(ख) धन के बिना लाभ नहीं होता।
#धनम् विना लाभं न भवति । आदि।
तरुणेश कुमार झा मैथिली

लकार

#लकार_गण_धातुप्रकार_विभक्ति 
(1.) #संस्कृत_भाषा_में_तीन_लिंगः---(क) पुल्लिंग, (ख) स्त्रीलिंग, (ग) नपुंसकलिंग।
(2.)#तीन_वचनः---*
(क) एकवचन, (ख) द्विवचन, (ग) बहुवचन।
(3.) #तीन_पुरुषः--*(क) प्रथमपुरुष, (ख) मध्यमपुरुष, (ग) उत्तमपुरुष।
(4.)#छः_कारक_विभक्ति_और_चिह्नसहितः--
(क) कर्ताकारकः--ने (प्रथमा),
(ख) कर्मकारकः--को, (द्वितीया)
(ग) करणकारकः---से द्वारा, (तृतीया)
(घ) सम्प्रदानकारकः--के लिए, (चतुर्थी)
(ङ) अपादानकारकः---से अलग, (पञ्चमी),
(च) सम्बन्धः----का,के,की, (षष्ठी),
(छ) अधिकरणकारकः---में, पर, (सप्तमी),
(ज) सम्बोधनः--हे, हो ,अरे, (प्रथमा),
★(विशेषः----सम्बन्ध और सम्बोधन को कारक नहीं माना जाता।)
इस प्रकार कुल विभक्तियाँ सात हैं।
(5.)#लकारः---संस्कृत में कुल 10 लकार होते हैं। लिंग के दो भेद हैं---आशीर्लिंग और विधिलिंग। लेट् लकार का प्रयोग केवल वेद में होता है। इस प्रकार लोक में 10 लकार ही रहते हैं, जो इस प्रकार हैः--
(क) लट्,
(ख) लिट्,
(ग) लुट्,
(घ) लृट्,
(ङ) लेट्,
(च) लोट्,
(छ) लङ्,
(ज) लिंगः---आशीर्लिंग और विधिलिंग,
(झ) लुङ्,
(ञ) लृङ्
(6.)#गणः---10 गण होते है। इसके अतिरिक्त एक कण्ड्वादिगण भी है। जो इस प्रकार हैः--
(क) भ्वादिगण,
(ख) अदादिगण,
(ग) जुहोत्यादिगण,
(घ) दिवादिगण,
(ङ) स्वादिगण,
(च) तुदादिगण,
(छ) रुधादिगण,
(ज) तनादिगण,
(झ) क्रयादिगण,
(ञ) चुरादिगण,
(ट) कण्ड्वादिगण (अतिरिक्त)
(7.)#धातुएँ_दो_प्रकार_की_होती_हैं----(क) आत्मनेपदी (ख) परस्मैपदी। कुछ धातुएँ उभयपदी भी होती हैं।

कर्ता_कारक_【#Nominative_Case】

#कर्ता_कारक_#Nominative_Case
१.सूत्र:- #क्रियासम्पादकः_कर्ता
व्याख्या:- क्रिया का सम्पादन करने वाले को कर्ता कारक कहते हैं। कर्ता कारक का चिह्न "0,ने " है।
यथा:- #वह किताब पढता है । #सः पुस्तकम् पठति।
#राधा गीत गाती है । #राधा गीतं गायति।
यहाँ #सः और #राधा कर्ता कारक है ।
२.सूत्र:- #कर्तरि_प्रथमा ।
व्याख्या:- कर्ता कारक में प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा:- #राम स्कूल जाता है।#रामः विद्यालयम् गच्छति।
यहाँ रामः में प्रथमा विभक्ति है ,क्योंकि #राम कर्ता कारक है ।
३.सूत्र:- #प्रातिपदिकार्थमात्रे_प्रथमा
व्याख्या:- किसी भी शब्द का अर्थ-मात्र प्रकट करने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
यथा :- #जनः (आदमी), #लोकः (संसार), #फलम् (फल), #काकः (कौआ) आदि।
४.सूत्र :- #उक्ते_कर्तरि_प्रथमा ।
व्याख्या :- कर्तृवाच्य (Active Voice)में जंहाँ कर्ता पद "कहा गया" रहता है वहाँ उसमे प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा:- #राम घर जाता है । #रामः गृहम् गच्छति।
५.सूत्र:- #सम्बोधने_च ।
व्याख्या :- सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा :- #हे_राम ! यहाँ आओ। #हे_राम! अत्र आगच्छ ।
६.सूत्र:-#अव्यययोगे_प्रथमा ।
व्याख्या :- अव्यय के योग में प्रथमा विभक्ति होती है ।
यथा :- #मोहन कहाँ है? #मोहनः कुत्र अस्ति?
यहाँ मोहन कर्ता नहीं है फिर भी कुत्र अव्यय होने के कारण मोहन में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ ।
७.सूत्र:-#उक्ते_कर्मणि_प्रथमा
व्याख्या:- कर्मवाच्य (Passive Voice) में जहाँ कर्ता पद "कहा गया" रहता है , वहाँ उसमे प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा :- (क)राम के द्वारा घर जाया जाता है। रामेण #गृहम् गम्यते।(ख)तुझसे साधु की सेवा की जाती है। त्वया #साधुः सेव्यते। आदि।
तरुणेश कुमार झा मैथिली

संस्कृत-भाषा सरला भाषा

🙏#बुद्धिजीवियों_की_सेवा_में : 🙏
😇अंग्रेजी में #A_QUICK_BROWN_FOX_JUMPS_OVER_THE_LAZY_DOG'एक प्रसिद्ध वाक्य है। अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर उसमें समाहित हैं। किन्तु कुछ कमियाँ भी हैं :-
1) अंग्रेजी अक्षर 26 हैं और यहां जबरन 33 अक्षरों का उपयोग करना पड़ा है। चार O हैं और A,E,U तथा R दो-दो हैं।
2) अक्षरों का ABCD... यह स्थापित क्रम नहीं दिख रहा। सब अस्तव्यस्त है। 
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#अब_संस्कृत_में_चमत्कार_देखिए.!
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#:#खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।
#तथोदधीन_पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां_सह।।
(अर्थात्)- पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का , दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय कि जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।
आप देख सकते हैं कि संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस पद्य में आ जाते हैं। इतना ही नहीं, उनका क्रम भी यथायोग्य है।
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#एक_हीअक्षरों_का_अद्भूत_अर्थ_विस्तार...
माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल "भ" और "र " दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है-
#भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे
#भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।
अर्थात् धरा को भी वजन लगे ऐसे वजनदार, वाद्य यंत्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले निडर हाथी ने अपने दुश्मन हाथी पर हमला किया।
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#किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल "न" व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल्य प्रयोग करके #भारवि_नामक_महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है:-
#न_नोननुन्नो_नुन्नोनो_नाना_नाना_नना_ननु
#नुन्नोSनुन्नो_ननुन्नेनो_नानेना_नन्नुनन्नुनुत्।।
अर्थात् जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।।
।। #वंदेसंस्कृतम् ।।

Monday 7 August 2017

पीड़ा से सृजन की यात्रा

पीड़ा से सृजन की यात्रा में बहुत उतार चढाव देखे | उतरते चढ़ते जीवन की राह में कई सत्य उद्घाटित हुए..दबी कुचली इच्छाएं/आकांक्षाएं/अपेक्षाएं भी सर उठा के खड़ी दिखाई दी, इनके साथ उलझा भी, फिर लगा उलझाव और अधिक उलझाव ला रहा है, तो स्वीकार्य भाव में जिया भी...ग्लानि भाव ने भी यात्रा को अवरुद्ध करने का पूरा प्रयास किया पर मातृशक्ति की प्रेरणा से, उसकी सहजता से पार पाता चला गया....शारीरक पीड़ा से लेकर मानसिक पीड़ा की इस यात्रा से कई अनुभव जीवंत हुए, जीवन से सीधे जुड़ने के अवसर मिले और जाना समझा कि जीवन वास्तव में अनुभव की आंच पर ही पकता है..अन्यत कोई मार्ग नहीं है...अन्यथा होना घाव दे जाता है..निजता में जो कुछ सामने आये उसे देखें, समझे और बिना ग्लानि भाव से, अपराध बोध से ग्रसित हुए आगे बढ़ जाएँ बिना किसी लाग लपेट के...मातृशक्ति कहती है कि पीड़ा के बाद सृजन अनिवार्य है..आना ही चाहिए अन्यथा सन्यासी के जीवन में पीड़ा का अर्थ नहीं रह जाता है...सन्यासी पीड़ा से गुजरता है तो एक नई क्रांति घटित होनी चाहिए, और यदि वो आत्म-क्रांति हो तो इससे शुभ और क्या हो सकता है? २ माह की शारीरिक पीड़ा से अब सृजन की यात्रा पर निकला हूँ, उत्साहित हो रहा हूँ...खूब सारा साहस, समझ बटोर रहा हूँ, अहसासों को फिर से नए पंख लग रहे हैं...भाव हिलोरें मार रहे हैं..उमंग भी मेरी सहचरी हो रही है..यात्रा का आरंभ हो चुका है और आनंद के क्षण भी मिल रहे हैं...मातृशक्ति ने जिस समर्पण भाव से इन २ महीनों में साथ दिया लगा परमात्मा स्वयं सेवा सुश्रुसा में लगा हो..इतने गहरे एहसासों के बीच मेरी पीड़ा शनैः शनैः सृजन में बदल रही थी इसका सूक्ष्म एहसास होता रहा....धन्यता का भाव, अनुग्रह का भाव सदा बना रहे ऐसा सामर्थ्य ईश्वर मुझे देता रहे......अहोभाव से लबालब मेरा हृदय सबके प्रति छलकता रहे हे! परमात्मा......नब्बू 

Sunday 11 September 2016

अम्ब!

सुबह का वक़्त था, लगभग ६ बज रहे थे, मैं कार्यालय के हॉल में पहुंचा तो इस समय कुछ लोग लगभग ३० या ३५ लोग योग कर रहे  थे| मैं हॉल के बहार की तरफ चले गया| तभी अम्ब ने मुझे बहार खड़े देखा तो इशारा कर साथ में योग करने को बुलाया पर मैंने सर हिला मना कर दिया और बस टहलने भर लगा | कुछ देर बाद माँ तेजी से मुड़कर मेरे पास बाहर आ गई और बस मुझे देखने लगी, मुझे पता था जब वो ऐसे भाव से मुझे देखती थी तो उनके मन में क्या चलता था? शायद उनका मन बरबस मुझे आगोश में लेने को था, लेकिन उनकी भाव भंगिमा बता रही थी की वो अपने को सहज करने में लगी हैं, फिर मैं वहीँ सीढियों में बैठ गया और माँ भी पास ही बैठ गई.

माँ को पता था की नब्बू थोड़ी देर में चले जायेगा, इस चले जाने के एहसास को दिमाग से मिटा देना चाहती थी पर उनका चित्त ही मेरे चले जाने पर लगा था, वो भावुक हो रही थी, भीतर पूरा सैलाब भर गया था, उनका चेहरा पल पल रंग बदल रहा था, विरह की वेदना कभी मुख पर छा जाती तो कभी मुझे निहारने का आनंद मुख मंडल पर रौनक ले आता, यूँ धूप-छाँव भावनाओं की चल रही थी| 

मैं मासूम सा यही कहता था, "अब रो मत देना अम्ब!"
"मैं कहाँ रो रही हूँ, मैं नहीं रो रही हूँ, देखो मैंअब किन्नी सारी मजबूत हो गई हूँ" कहकर संयत होती लेकिन पल भर भी अपनी बात पर टिकी वो नहीं रह पाती थी, खुद के दिए हौसले को भी उसका माँ का ह्रदय तोड़ डालता था|

योग सत्र ख़त्म हुआ तो लता माँ के चरण स्पर्श कर मैं भी जाने को उद्यत हुआ | जैसे जैसे अम्ब को लगता कि बस कुछ ही देर में अब मैं चले जाऊंगा तो उनका सारा व्यक्तित्व मुरझा सा जाता था, उनके मन कई विचार चलते थे, "कहीं ये मेरा नब्बू के प्रति मोह तो नहीं है, इतनी तकलीफ क्यों हो रही है, जैसे मुझसे ही मेरा कुछ अंश, कुछ भाग, मेरा हिस्सा ही अलग हो रहा हो, मुझसे कटा जा रहा हो, कुछ भीतर से टूटन सी महसूस हो रही थी" 

एक तरफ उसके विचारो के साथ द्वन्द और दूसरी तरफ प्रत्यक्ष बिछोह, 
माँ तय नहीं कर पा रही थी की किस्से जूझा जाय, 
अचानक बोली " बैठो गली नो १६ तक पैदल चलेंगे, मुझे वहां तक छोड़ आओ, आज स्कूटी नहीं लाई हूँ"

मैंने भी कुछ सोच के हाँ बोल दिया कि " हाँ चलो! थोडा सैर भी हो जाएगी"

गेट से बाहर निकलते ही स्कूटी की चाबी को हवा में लहराते बाल हंसी हँसते हुए कहने लगी " तू मुझसे इतना झूठ बोलता है, आज एक मैंने भी बोल दिया"  अब चल मेरे साथ

संशय में मुझसे कुछ कहा नहीं गया बस इतना ही कहा "नहीं, ये तो चीटिंग है" मैं बाहर से खुद को रोक रहा था, और भीतर से खींचा जा रहा था उसकी तरफ, स्कूटी की तरफ बढे जा रहा था. 
एक अनमने मन से मैं मना करता और फिर साथ माँ के जाने को तैयार सा भी रहता | 
इन सब हरकतों से माँ ने समझ लिया था कि अब तो नब्बू को ले ही जाउंगी |

फिर क्या था, मैं माँ के साथ पीछे स्कूटी में बैठ गया, और इस तरह उसके साथ सफ़र का साथी बन गया, उसके नेतृत्व में चल पड़ा मैं |

सम्भलते सम्भलते स्कूटी को चलाते माँ, मुझे अपने घर के पास ले गई| ......मन मे विचार कि "क्या बोल दूँ अम्ब को, अब चले जाऊं यहाँ से?" नहीं..कैसे कहूँ, इसी उधेड़-बन में माँ ने कहा चलो! 

स्कूटी पार्क हो चुकी थी, मैं अम्ब के पीछे सीढियों पर चढ़ने लगा, उतने में चौकीदार की आवाज आई..
" चाबी....."
अम्ब:- सिद्ध बाहर गया है (आश्चर्य से!) झटपट सीढ़ी से नीचे उतरते हुए 
मैं भी माँ के पीछे पीछे नीचे उतरने लगा, तभी माँ पलट के बोलती, " अरे! तुम वहीँ रुको, बिलकुल; बच्चे की तरह पीछे आ रहे हो, मींठी-डांट ने मुझे रोक दिया  और मैं तीसरे मंजिल की तरफ जाने लगा की जिस दरवाजे पर ताला लगा होगा वहीँ जाकर रुकुंगा |"
मेरे लिए ये सब अनायास हो रहा था, क्योंकि मैंने कभी नहीं सोचा था की माँ के साथ मैं घर पर जाऊंगा, सिद्ध से मिलूँगा...मेरी कल्पना में भी ये ख्याल कभी नहीं आये थे...

इससे पहले कई बार सार्वजनिक रूप से जब में माँ से मिलता तो उनके पाँव छूता था, और वो ठिठक सी जाती थी, उन्हें लगता था मैं ब्रह्मचारी हूँ, मुझे पाँव नहीं छूने चाहिए, लेकिन अगले ही पल उन्हें लगता था जैसे वो अपने कान्हा को, अपने नब्बू को गले से लगा ले, उसे अपने ही पास रख ले

हर बार मुझसे कहती, मैं तुझे परेशां कर देती हूँ न! क्या करूँ कान्हा मैं तड़प जाती हूँ अपने पुत्र को गले लगाने को, मैं सबसे कह दूंगी की मैं नब्बू की अम्ब हूँ, मैं नब्बू की माँ हूँ. फिर कोई कुछ नहीं सोचेगा....इस तरह हर बार वो अपनी ममता को दबा देती...   

भीतर पहुँचते ही, लग गई मेरी आवभगत में!!......पानी पियो...मैं नाश्ता बना देती हूँ आदि आदि...
किचन में घुस गई माँ......जब से मैं उनके अपार्टमेंट में घुसा था, बस छोटे से बच्चे की तरह बस उनके आगे पीछे ही घूम रहा था, इसलिए किचन में भी उनके साथ चले गया, वो तो बस मुझे कुछ खिलाना चाहती थी....

फिर एक पल रुकी...गहरी साँस ली और मुझे अपने आँचल से लगा लिया, उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था की उसका नब्बू, उसका बेटू  उसके पास था, आज वो मुझे कहीं नहीं जाने देना चाहती थी, मुझे खिलाना चाहती थी, निहारना चाहती थी |

अपने मोल लिए कान्हा को यशोदा के हिस्से का प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सबकुछ देना चाहती थी...
"नब्बू क्या सच में टू मेरे पास है...अनायास यही बोल पड़ती"   
         

Friday 9 September 2016

"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ




"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ
बहनों के आशीष से मन हर्षित हुआ
पूज्य श्री का पावन सानिध्य साथ में
सबकुछ पवित्र अंतर्मन सहित हुआ
"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ!!
बहनों की न कोई "मांग" थी,
बस स्नेह पूरित ये छलांग थी
रोली, चन्दन और रक्षा सूत्र था
तृप्ति में डूबी "गीली" आँख थी
भरी कलाई देखकर, मैं भी पुलकित हुआ
"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ
श्रद्धामय वातावरण आहा! उदात्त था
मेरे मस्तक पर देखो बहनों का हाथ था
बंद आँखों से सौ सौ प्रणाम किये
हाँ! ये "रक्षा" का पावन मूक संवाद था
स्नेह ही स्नेह था, अहंकार तिरोहित हुआ
"रक्षा" बंधन पर स्नेह वितरित हुआ

बचपन से लेकर आजतक!



बचपन से लेकर आजतक!
मैं क्या क्या न हुआ, मैंने क्या क्या मुकाम न छुआ
मैंने डर को "डराया", मैंने दर्द भी बांटा जो था पराया
बचपन की फुंहारे चूमती हैं मस्तक
बचपन से लेकर आजतक!!
एक भाव में जिया, मैं जलता, बुझता सा दिया
लिए घूमता फिरता रहा, कहता रहा कुछ अनकहा!
जो खुद मैं न समझा अब तलक!
बचपन से लेकर आजतक!!
पता नहीं मैं क्या चाहता था? न जाने मैं क्या नापता था?
अपने कदमो से किस ओर चला! ये भी कौन जाने भला?
राहगीर था जो राह गया था भटक!
बचपन से लेकर आजतक!!
भटकी राह में मिलता है, कोई जब पूण्य खिलता है
उंगली पकड़ पार लगाता है, कोई जब अश्रु धार बहाता है
फिर किस्मत पर नहीं रोता है साधक!
बचपन से लेकर आजतक!!

विचार प्रवाह

चालबाज होने से हमारी सम्पूर्ण कोशिश रहती है कि कैसे दूसरों को पटखनी दें, अर्थात हमारे भीतर द्वेष प्रबल रूप से उफान लेने लगता है। यह प्रक्रिया इतनी गुपचुप तरीके से हमें घेर रही होती है कि इसका पता लगना आसान नहीं होता। हम बिखरने लग जाते हैं, हम कम होने लग जाते हैं और सामान्य सी शांति जो सहज उपलब्ध है वो भी हमसे छिन जाती है। इस चक्र से बाहर निकलने का एक ही मार्ग है वो है सबसे प्रेम व प्रीति पूर्वक व्यव्हार करना, कठिन है साधना पथ पर सूक्ष्म साधना की अवस्था इसकी प्राप्ति सुगम बना देती है। इस एक उपाय में सारे उप-उपाय समाहित हैं। चालबाज नहीं हम प्रेम,प्रीति का आगाज़ बनें।

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क्या कोई कभी पूर्ण सत्य बोलने का साहस कर सकता है? पूर्ण सत्य से मेरा आशय है-सबकुछ जो भी अशुभ किया है और आगे से शुभ ही करेगा इस भावना से उघाड़ा गया सत्य!
पूर्ण सत्य:-अपनी प्रतिष्ठा, मान, सम्मान, उपाधि से विरत होकर वाणी को मुक्तहस्त बोलने देना, खोलने देना वो दबे राज जो खुद से भी अनजाने से रहे हैं अबतक!
कोई ऐसा कर ले,तभी पूर्ण निर्भार हो कर सत्य में प्रतिष्ठित हो सकता है, नहीं तो उसका व्यक्तित्व खंड खंड होकर उसे टुकड़ों टुकड़ों में तोड़ देगा!
में कभी कर पाउँगा ऐसा साहस? कठिन है पर मेरे हृदय की तीव्र अभीप्सा है..
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