पीड़ा से सृजन की यात्रा में बहुत उतार चढाव देखे | उतरते चढ़ते जीवन की राह में कई सत्य उद्घाटित हुए..दबी कुचली इच्छाएं/आकांक्षाएं/अपेक्षाएं भी सर उठा के खड़ी दिखाई दी, इनके साथ उलझा भी, फिर लगा उलझाव और अधिक उलझाव ला रहा है, तो स्वीकार्य भाव में जिया भी...ग्लानि भाव ने भी यात्रा को अवरुद्ध करने का पूरा प्रयास किया पर मातृशक्ति की प्रेरणा से, उसकी सहजता से पार पाता चला गया....शारीरक पीड़ा से लेकर मानसिक पीड़ा की इस यात्रा से कई अनुभव जीवंत हुए, जीवन से सीधे जुड़ने के अवसर मिले और जाना समझा कि जीवन वास्तव में अनुभव की आंच पर ही पकता है..अन्यत कोई मार्ग नहीं है...अन्यथा होना घाव दे जाता है..निजता में जो कुछ सामने आये उसे देखें, समझे और बिना ग्लानि भाव से, अपराध बोध से ग्रसित हुए आगे बढ़ जाएँ बिना किसी लाग लपेट के...मातृशक्ति कहती है कि पीड़ा के बाद सृजन अनिवार्य है..आना ही चाहिए अन्यथा सन्यासी के जीवन में पीड़ा का अर्थ नहीं रह जाता है...सन्यासी पीड़ा से गुजरता है तो एक नई क्रांति घटित होनी चाहिए, और यदि वो आत्म-क्रांति हो तो इससे शुभ और क्या हो सकता है? २ माह की शारीरिक पीड़ा से अब सृजन की यात्रा पर निकला हूँ, उत्साहित हो रहा हूँ...खूब सारा साहस, समझ बटोर रहा हूँ, अहसासों को फिर से नए पंख लग रहे हैं...भाव हिलोरें मार रहे हैं..उमंग भी मेरी सहचरी हो रही है..यात्रा का आरंभ हो चुका है और आनंद के क्षण भी मिल रहे हैं...मातृशक्ति ने जिस समर्पण भाव से इन २ महीनों में साथ दिया लगा परमात्मा स्वयं सेवा सुश्रुसा में लगा हो..इतने गहरे एहसासों के बीच मेरी पीड़ा शनैः शनैः सृजन में बदल रही थी इसका सूक्ष्म एहसास होता रहा....धन्यता का भाव, अनुग्रह का भाव सदा बना रहे ऐसा सामर्थ्य ईश्वर मुझे देता रहे......अहोभाव से लबालब मेरा हृदय सबके प्रति छलकता रहे हे! परमात्मा......नब्बू